यहाँ देश में
दलित−दलित का खेल खूब चल रहा है। हर प्रदेश में चौतरफा दलितों पर अत्याचार का
रोना−रोया जा रहा है । हकीकत पर पर्दा डालकर हवा में तीर चलाये जा रहे हैं ।
दलितों का मसीहा बनने की होड़ में कई दल और नेता ताल ठोंक रहे हैं । दलितों को लेकर
देश में खूब राजनीति होती है | लेकिन इसके बावजूद इनकी स्थिति में कोई खास सुधार
नहीं है | अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के लिए 2014 में प्रोफेसर
अमिताभ कुंडू ने एक तुलनात्मक रिपोर्ट तैयार की थी | इसमें बताया गया था की आज देश
में एक तिहाई दलितों के पास जीवन की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने वाली सुविधाएं
नहीं है | गावों में 45 फीसदी दलित परिवार
भूमिहीन हैं और वह मजदूरी कर जीवन यापन करते है | हालाँकि सरकार ने वित्तीय वर्ष 2016-17 में दलितों के उत्थान के लिए 38832 करोंड़ रुपये का आवंटन किया है | यह आकड़ा पिछले बजट में 30 हजार था |
सोशल मीडिया पर
एकजुटता
आप सभी को
जानकारी होगा की पत्रकार रामा लक्ष्मी अपनी रिपोर्ट में कहती है कि दलित युवा अपनी
आवाज को बुलंद करने के लिए सोशल मीडिया जैसे ट्विटर, फेसबुक का भरपूर
उपयोग कर रहे है | अभी कुछ माह पूर्व कोलकाता में एक ब्रिज गिरा तो उस हादसे में
दर्जनो लोग मारे गए तब कन्ट्रक्सन कम्पनी पर सवाल उठने लगे | इसी बीच एक व्यवसायी
मोतीलाल ओसवाल ने अपने ट्विटर पर ट्विट किए कि यह हादसा देश के उन इंजीनियरों के
कारण हुआ है जो टैलेंट के दम पर नहीं बल्कि जाति-विशेष और आरक्षण का लाभ लेकर इंजीनियर
बनते है | उनके इस ट्विट के बाद सैकड़ो दलितों ने उसके विरोध में ट्विट और फेसबुक
पर अपना गुस्सा जाहिर किये | मामला इस कदर बढ़ा कि ओसवाल ने घंटे भर में ही माफी
मंगाते हुए अपना ट्विट डिलीट करना पड़ा |
ऐसा ही एक
कैम्पेन ट्विटर पर दलितों ने देश की उस कम्पनी के खिलाफ चलाया जिसने अपने एक
विज्ञापन में आरक्षण का लाभ लेने से इंकार करने वाले लोवर कास्ट स्टूडेंट को
दिखाया था |
अभी हल ही में आप सभी को सहारनपुर की घटना झकझोर कर रख दिया है, आप सभी देख ही रहे है की एक जाति विशेष के लोगों द्वारा किस तरह से असहाय और निर्दोष दलितों को किस बेरहमी से मौत के घाट उतारा जा रहा है | जानवरों से भी बत्तर जिंदगी दलितों की हो गई है | इस पर वर्तमान सरकार भी मौन धारण किये हुई है |
दलित लेखक चंद्रभान प्रसाद कहते है कि अपर कास्ट के लोगो के लिए सोशल मीडिया आविष्कार होगा, लेकिन दलितों के लिए यह क्रांति का बेहतरीन जरिया है |
देखा जाय तो
सदियों से दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता रहा है, दलितों को उनका अधिकार देने में अपर कास्ट के लोगों द्वारा
दोहरा चरित्र अपनाया जाता रहा है | आज दलितों के पढ़-लिख जाने के बावजूद भी उनके
स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं दिखता है | अभी भी दलितों को उनके जनसँख्या के
अनुरूप किसी भी क्षेत्र में पूर्ण भागीदारी नहीं मिल पाई है | भले ही सभी दलों के
नेता अपने आप को दलितों का मसीहा साबित करने के लिए परेशान है, भले ही उनको दलितों के हितों की बात या अधिकार दिलाने से
कोई सरोकार हो या न हो पर दलित हिमायती साबित करने के लिए दिखावा जरुर करते नजर आ
रहे है | दिखावा करने के लिए किसी दलित के घर भोजन कर लेने मात्र से दलितों का भला होने वाला नहीं है | नेताओ को अपनी नौटंकी अब बंद करके उनके बेहतर जीवन और रोजगार की व्यवस्था करनी चाहिए |
महान आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर ने लिखा है- डॉ०
अंबेडकर ने गांधी को दलितों का दुश्मन नम्बर एक कहा था। उन्होंने गांधी को भारतीय
राजनीति में अंतरात्मा की आवाज पर अंधकार युग लाने वाला भी कहा था। यह उन दोनों की
लड़ाई थी जो जबरदस्त हुई थी, कहें कि खूब बजी थी। इसमें असली कुरुक्षेत्र दलित नेतृत्व
को लेकर था । गांधी की इससे बड़ी शतरंजी चाल नहीं थी कि उन्होंने लंदन की गोलमेज
सभा में यह दावा करके अंबेडकर के सीने पर कुठाराघात किया कि डॉ. अंबेडकर दलितों के
नेता नहीं है ।....... वे अंबेडकर की बजाय खुद को दलितों का असली नेता और
प्रतिनिधि घोषित कर रहे थे । उन्होंने सच में डॉ० अंबेडकर को इसकी चुनौती दी थी।
कहना यह है कि गांधी इस सच्चाई को छुपा गए जिसे डॉ. अंबेडकर अच्छी तरह जानते थे कि
संसार में वे ही कौमें आगे बढ़ती हैं जिनका नेतृत्व उनके अपने हाथों में होता है ।
सब कुछ छूट जाए, किसी कौम का नेतृत्व उसके
हाथों से नहीं छूटना चाहिए- अन्यथा, अगला सारा रास्ता गुलामी
और अपमान का होता है । (देखें, दलित चिंतन की स्वतंत्रता, धर्मवीर, नई धारा, फरवरी-मार्च, 2016, पृष्ठ 23 ) आजीवक चिंतक डॉ. धर्मवीर
सही ही तो कहते हैं, दलित उबाल खा कर लड़ता
क्यों नहीं। इसे किस बात का भय है ?
इसी क्रम में
प्रसिद्ध आलोचक कैलाश दहिया अपने फेसबुक वाल पे लिखते है कि दलित कौम चिंतन
की हारी हुई कौम है । ब्राह्मण ने इसे अपनी व्यवस्था का गुलाम बनाया हुआ है । दलित
सोचता है कि कोई दूसरा आ कर इस की गुलामी को खत्म कर देगा । इसीलिए यह कभी बुद्ध
की तरफ देखता है तो कभी गांधी की तरफ। बताइए, किसी को क्या पड़ी है जो
वह दूसरे की गुलामी के लिए लड़े ?
अपनी गुलामी
मिटाने के लिए खुद लड़ना-मरना पड़ता है । क्या दलित को ईश्वर ने हाथ, पांव, आंख, नाक, कान कम दिए हैं ? यह अपनी गुलामी के खात्मे
के लिए मैदान में क्यों नहीं आता ?
देखा जाए तो
दलितों का सबसे अधिक शोषण राजनीतिज्ञ करते हैं । चुनावों के समय अक्सर राजनेताओं
का दलित प्रेम जगता है । लेकिन हकीकत ये है कि ये सियासी लोग दलितों का वोट तो
चाहते हैं लेकिन उनकी चिंता नहीं करते । देश के किसी भी कोने से दलितों के ऊपर
अत्याचार की कोई घटना प्रकाश में आती है तो सभी दलों के नेता उसे तुरंत हाईजेक कर
लेते हैं । चाहे गुजरात हो या बिहार अथवा देश का अन्य कोई हिस्सा, जहां कहीं से भी दलितों पर अत्याचार की खबर आती हैं, नेताओं का वहां पहुंचना शुरू हो जाता हैं। देश का सबसे बड़ा
प्रदेश उत्तर प्रदेश में आम विधानसभा चुनाव होने वाले है, नेताओं की भी नजरें दलित वोटरों पर लगी रही हैं। बसपा
सुप्रीमो मायावती प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लगातार ललकार रही हैं कि वह
दलितों पर अत्याचार के मुद्दे पर सहानुभूति जताने की जगह दलितों पर अत्याचार करने
वालों के खिलाफ कार्रवाई करें।
नेशनल सैम्पल
सर्वे आर्गेनाइजेशन-इकॉनोमिक डाटा, सेंसस 2011, लोकसभा में पेश रिपोर्ट, एनसीआरबी रिपोर्ट, दलित इंडियन
चैम्बर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के अनुसार --
देश में 1064 जातियां अनुसूचित जातियों (दलित) के तहत आती है
देश में दलितों
की आबादी
16.6 प्रतिशत दलित है | यानि
करीब 20.1 करोड़ | 2011 जनगणना के अनुसार मुस्लिम 17.22 करोड़ है | वही
एसटी 10.4 करोड़ है | यानि
मुसलमानों से 3 करोड़ ज्यादा और
आदिवासियो से 10 करोड़ अधिक है | 9.79 करोड़ दलित महिलाओ की संख्या है | वहीँ उत्तर प्रदेश में
सर्वाधिक 20.5 प्रतिशत दलित है |
दलितों की
जिंदगी
शादी- दलितों की गैर दलितों
में शादी बढ़ रही है, सदियों से चली आ रही
परम्पराओं को समाप्त कर अब गैर दलित में शादी करने की शुरुआत कर दी है | 2010 में 7148 गैर दलित ने दलित से
शादी की | 2012 में यह आकड़ा 9623 पहुँच गया |
खर्च- रिपोर्ट में यह सामने
आया है की दलितों में खर्च करने की प्रवृत्ति अपर कास्ट से कम होती है | 60 प्रतिशत कम खर्च करते है दलित- 1999-2000 के बीच ग्रामीण इलाके में स्वर्ण परिवारों से दलितों के
खर्चे का अंतर 38 प्रतिशत था जो दस साल
बाद -2011-12 में 37 हुआ | शहरी इलाको में यह अंतर आज 60 गुना हुआ है |
पढाई- केवल 4 प्रतिशत दलित ग्रेजुएट है और 45 फीसदी लिखना-पढ़ना ही नहीं जानते | 1999 में 4.6 फीसदी छात्र 12वी से आगे पढाई जारी रख पा रहे थे तो 2011 में यह प्रतिशत 9.4 से आगे नहीं बढ़ पाया |
स्वास्थ्य- दलितों के 54 प्रतिशत बच्चे कुपोषित
है, 12 प्रतिशत दलित बच्चे पांच
साल तक होते-होते मौत के शिकार हो जाते है | 54 प्रतिशत बच्चे कुपोषित
है जबकि मात्र 27 प्रतिशत दलित औरतों को
ही बच्चा जनने की सुविधा किसी स्वास्थ्य केंद्र में मिल पाती है |
उच्च पदों में
दलित की स्थिति
केंद्र सरकार के
उच्च पदों की नौकरियों में नाम मात्र के दलित अधिकारी है | जबकि आरक्षण के अनुसार 15 फीसदी अधिकारी आवश्यक रूप से दलित समुदाय के अधिकारी होने
चाहिए |
·
कुल 149 सेक्रेटरी या ऊँचे पदों में कोई दलित नहीं है | यानि 0 प्रतिशत दलित है |
·
108 एडिशनल सेक्रेटरी में से
मात्र 2 दलित है | यानि 1.9 प्रतिशत दलित है |
·
477 जॉइंट सेक्रेटरी में से 31 दलित है | यानि 6.9 प्रतिशत दलित है |
·
590 निदेशक में से 17 दलित है |
·
73 सरकारी विभागों में
दलितों के 25037 पद रिक्त है, जिनमे से 5419 पद प्रमोशन नहीं होने की वजह से खाली पड़े है |
दलित उद्धमी की
स्थिति
2001 में देश में दलित उधमी 10.5 लाख थे | जो 2006-07 में बढकर 28 लाख हो गए| एक अनुमान के मुताबिक अब इनकी संख्या 87 लाख से अधिक है | वर्तमान में हर साल 30 प्रतिशत दलित उधमी बढ़ रहे है |
30 दलित करोड़पति बिजनेसमैन
है देश में | इसमे 440 करोड़ के मालिकाने के साथ
अशोक खाड़े सबसे बड़े और 140 करोड़ की मालकिन कल्पना
सरोज सबसे चर्चित दलित व्यवसायी है |
राजनीति में
दलितों की स्थिति
84 सीटें लोकसभा में दलित
सांसदों के लिए आरक्षण का प्रावधान है, जिसमे 40 सांसद बीजेपी के है | विधानसभाओ की 4120 सीटों में से 607 सीटें दलित विधायको के
लिए आरक्षण है |
हालांकि, दलित उपर उठ रहे हैं सवर्ण के समांती हुकूमत को दरकिनार
करने की पहल भी दिखने लगी है। ऐसे में दलित प्रजा को खोते देख सवर्ण तबका हतप्रभ
रह गया है। वैसे, देश भरके आकंडे दलित
उत्पीड़न की जो तस्वीर पेश कर रहे हैं वह साफ है। दलितों के बराबरी के मुद्दे को
राजनीतिक, ब्राहम्णवाद, सामाजिक बदलाव के दायरे में फंसा कर छोड़ा नहीं जा सकता है।
बल्कि राजनीति, समाज, ब्राहम्णवाद यो कहें कि हर वाद को सामने आना होगा और हाशिये
के समाज को सिर्फ समाज की संज्ञा से जोड़ना होगा, जहाँ कोई कोई अछूत या कोई अस्पृश्य नहीं हो। वहीं, दलित आंदोलनों के स्वरूप को भी दलितों पर हो रहे उत्पीडन के
लिए दोषी माना जा सकता है |
जय सिंह
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक, कवि, व्यंगकार
मोबाइल - 9450437630
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