शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

पाखंड और छुआ छूत के विरोधी ::: संत रविदास


   संत कुलभूषण कवि रैदास उन महान् सन्तों में अग्रणी थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज  में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी  का अद्भुत प्रयोग रही है जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है। हिन्दी साहित्य में भक्ति-काल के संत कवियों ने अपनी वाणी से साम्प्रदायिक सद्भाव का महनीय कार्य किया है।
संत रविदास (रैदास) ने भी इस क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया। कबीर के समकालीन संत रविदास का जीवन एक ज्ञानी, भक्त तथा समाज सुधारक का रहा। बचपन से ही रविदास का झुकाव संत मत की तरफ रहा। इसका कारण यही कहा जा सकता है कि संतों के आविर्भाव काल में इस्लाम का प्रभाव जोरों पर था। उच्च वर्गीय हिन्दुओं में धर्म का बाह्याडम्बर बहुत बढ गया था और वे निम्न वर्गीय जनता को बहुत हेय दृष्टि से देखते थे। छुआ-छूत, ऊँच-नीच आदि की भावना समाज को जर्जर कर रही थी। दूसरी तरफ इस्लाम धर्म-प्रचारकों की ओर से समानता और मानवता का व्यवहार मिलता था। इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेने वाले क्षुद्रों को वे खलीफा, मोमिन, शेख आदि विभूतियों से विभूषित करते थे। परिणामस्वरूप हिन्दू समाज में घृणा की दृष्टि से देखे जाने वाली क्षुद्र जनता स्वेच्छा से बहुत अधिक संख्या में मुसलमान होती जा रही थी। ऐसे समय में निर्गुणवादी संतों ने ऊँच-नीच की भावना से ऊपर उठकर जनता के एक बडे भाग को सम्बल दिया जो उनका आधार मिलने पर निश्चय ही इस्लामी झण्डे के नीचे चली जाती। इस दृष्टि से अन्य संत कवियों के साथ-साथ परम संत रविदास ने भी हमारे समाज के एक बहुत बडे अंग को विछिन्न होने से बचा लिया। इन संत कवियों में रविदास का नाम बडे गर्व के साथ लिया जाता है क्योंकि उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव के संवाहक के रूप में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। 
 मधुर एवं सहज संत रैदास की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है। प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं। इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसे सन्तों में रैदास का नाम अग्रगण्य है। वे सन्त कबीर  के गुरूभाई थे क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानंद थे।
आज से लगभग : सौ पैत्तीस वर्ष पहले भारतीय समाज अनेक बुराइयों से ग्रस्त था। उसी समय रैदास जैसे समाज-सुधारक सन्तों का प्रादुर्भाव हुआ। रैदास का जन्म सन् 1398 में काशी  में चर्मकार कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम संतो़ख दास (रग्घु) और माता का नाम कर्मा देवी बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे।
प्रारम्भ से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।
उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोलेगंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि
मन चंगा तो कठौती में गंगा।
रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वे बचपन से समाज के बुराइयों को दूर करने के प्रति अग्रसर रहे। उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन संबंधी उनके अनेक गुणों का पता चलता है। 
रैदास की वाणी अत्यंत सरल, सुबोध, उदार विचारों भक्ति-भावना से पूर्ण थी। वह अत्यंत विनीत, राग-द्वेषहीन, खंडन-मंडन की प्रवृत्ति से परे रहने वाले संत बन चुके थे। लोग उनकी आचार-पद्धति और वेद-शास्त्र के अनुकूल वाणी का रसपान करने के लिए दूर-दूर से आते थे। आडम्बर से दूर वह वाणी जनमानस की शंकाओं को सहज ही दूर करती थी। रदासजी के बारे में कुछ कथाएं भी प्रचलित हैं।
एक ब्राह्मण रोज गंगा-स्नान करने के लिए जाता था। एक दिन रैदास ने उसे बिना दाम लिए जूते पहना दिए और निवेदन किया की गंगा को मेरी ओर से एक सुपारी अर्पित कर देना। ऐसा कहकर उन्होंने एक सुपारी ब्राह्मण को दे दी। ब्राह्मण ने यथाविधि गंगा की पूजा की और चलते समय उपेक्षापूर्वक रैदास की सुपारी दूर से ही गंगाजल में फेंक दी। अगले ही पल वह ठगा सा खड़ा रह गया। उसने देखा कि गंगाजी ने स्वयं हाथ बढाकर फेंकी गयी वह सुपारी ले ली। वह रैदास की सराहना करने लगे, जिसकी कृपा से उसने गंगाजी के साक्षात् दर्शन किये। ब्राह्मण के माध्यम से पूरी काशी में रविदास की भक्ति की प्रसिद्धि फ़ैल गयी। रैदास पर गंगाजी की साक्षात् कृपा थी। रैदास की सिद्धावस्था के बारे में प्रचलित है कि उन्होंने अपनी कठौती में ही गंगाजी के दर्शन कर लिए थे। कहा जाता है की एक बार रैदास भक्तों से घिरे सत्संग कर रहे थे। सामने कठौती में जल रखा हुआ था। रैदास और अन्य भक्तों ने देखा की गंगाजी स्वयं कठौती के जल में प्रकट होकर कंकण दे रही हैं। रैदास ने गंगाजी को प्रणाम कर उनकी कृपा के प्रतीक उस कंकण को स्वीकार कर लिया।
एक बार एक धनी व्यक्ति उनके सत्संग में शामिल हुआ। सत्संग की समाप्ति पर संतों ने भगवान के चरणों का अमृतपान किया। धनी व्यक्ति ने यद्यपि चरणामृत ले लिया, किन्तु वह चमार के घर का था, इसलिए आँख बचाकर उसे फेंक दिया। घर आकर उसने स्नान किया और नए कपडे पहने। चूंकी चरणामृत की कुछ बूँदें उसके कपड़ों पर गिर गयी थीं इसलिए उसने वे कपडे एक कोढी व्यक्ति को दे दिए। कुछ ही दिनों में वह धनी व्यक्ति कोढ़ का शिकार हो गया, जबकि कोढी व्यक्ति का रोग धीरे-धीरे दूर हो गया। यह देखकर धनी व्यक्ति पुनः चरणामृत लेने आया; किन्तु उसके मन में आदर श्रद्धा का भाव था। यह जानकर रैदास ने कहा कि अब तो पानी ही बचा है, चरणामृत नहीं। 

वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक पेखा। 
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै। 
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।
उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-
 ऐसी मेरी जाति भिख्यात चमारं।
 हिरदै राम गौब्यंद गुन सारं।।
रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।
उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की। 
सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।
आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।
                                                                        
                                    जय सिंह 
                                           
   डॉ० भीम राव अम्बेडकर पी० जी० छात्रावास  लखनऊ