शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

व्यंग ---------------- मानाने में आगे


जिस तरह औरतें रूठे पिया को मनाती है| रसिक पति अपनी पड़ोसन प्रेमिका को मनाते है| नेता मतदाताओं को, छात्र अपनी गर्लफ्रेण्ड को, और मंत्री आंदोलनकारियों को मनाते है| राज्य स्तर के नेता हाइकमान को मनाते है, प्रथम श्रेणी के कर्मचारी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी को मनाता है| अथवा जिस तरह आम आदमी अपनी जीन्दगी की खैर मनाता है| या फिर एक वेतन भोगी कर्मचारी पहली तारीख को भुगतान दिवस और तीन या पांच तारीख को उधार दिवस के रूप में मनाता है। कुछ-कुछ इसी तरह हमारी सरकारें और हम आप भी दिवस, जयंतिया, हफ़ते, महिने, और वर्ष वगैरह मनाते रहते है। हमारे दे में रात के नाम पर दिन, दिन में बे बारात, नवरात्र और शिवरात्र मनाया जाता हैं | इसके अलावां जो कुछ भी मनाया जाता है वह दिवस के रूप में मनाया जाता है। इनकी एक लम्बी लिस्ट है। वैसे  इन दिवसों को रातों में मनाये जाने की मनाही नही है| चाहे वह महिला दिवस ही क्यों हो। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर रातों को भी दिन बना देते है। बकौल एक मशहुर शायर रात का इंतजार कौन करें, आज कल दिन में क्या नहीं होता और बकलम कवि जय, जब दिन इंतजार में बीता, रात को दिन बना लिया हमने 
खैर हमारे रग-रग, कण-कण, क्षण-क्षण में यह दिवस का नाम दूध और पानी की तरह घुसा हुआ है। कुष्ठ निवारण दिवस से एड्स दिवस, पर्यावरण दिवस से पोलियो दिवस तक हम मनाने को मजबुर व बेबस है। सच कहूं तो हम सब दिवस मनाने में इतने मगुल रहा करते है कि कब महिना बीत गया| यह हमें पता ही नही चलता है। मजदूर दिवस, किसान दिवस, महिला दिवस, बाल दिवस, स्वतंत्रता दिवस, जनसंख्या दिवस, शिक्षक दिवस,हिद दिवस, युवा दिवस, खेल दिवस, हिन्दी दिवस, हमारे कपितय ये महत्वपूर्ण दिवस है| ये सभी दिवस अलग अलग मनाये जाते है| मगर एक दूसरे के पुरक है। हम जानते है कि बिना महिला के बाल, बिना स्वतंत्रता के जनसंख्या, एवं बिना युवा के एड्स| और बिना हिद होने के भाव के बिना शिक्षक की अहमियत| कुछ कुछ वैसी ही मालूम होती है जैसे बिना हिन्दी दिवस के हिन्दी की। साल भर हर जगह अंग्रेजी भौकनें के बाद हम 365 दिन में एक बार हिन्दी दिवस जरूर मनातें है। इधर के कुछ वर्षो में अपने यहां हर या देहातों में डेज का चलन भी तेजी से आ गया है, मसलन जैसे फादर्स डे, फ्रेन्डशिप डे, वैलेन्टाइन डे, वाइफ डे, इनर्वसरी डे, और रोज न रोज बर्थ डे तो मनाया ही जाता है। यह सभी डे व दिवस पहले भी थे मगर किसी को कुछ मनाने की सुझी ही नही | लेकिन अब इस आधुनिक माहौल में नर्इ पीढी मनाने के लिए विव मजबुर कर दिये है।
जब हमारी मुड या कह लिजिए तबियत इन दिवसों और डेज को मनाते मनाते उब जाया करते है तो हम सप्ताह यानी वीक मनाने की सोचने लगते है तभी मेरा ध्यान कुछ महत्वपूर्ण सप्ताहों की तरफ जाता है। ट्रेफिक पुलिस वाले यातायात सप्ताह, जंगल विभाग वाले वन्य प्राणी सप्ताह, पुलिस लोग शिष्टाचार सप्ताह, बैक वाले लोग ग्राहक सेवा सप्ताह | बच निदेशालराष्ट्रीय बचत सप्ताह तथा पी0ए0सी0एल वर्कर प्रमोन सप्ताह मनाने में जुट जाया करते है। सप्ताह के नाम पर पुलिस और बदमाशो की अच्छी खासी हप्ता वसुली हो जाया करती है। मनाने के नाम पर सब मनमानी होती है। हम पितर पक्ष से लेकर लेकर विपक्ष तक सिर मुड़वाकर पखवारा मनाने की कला में भी हम किसी से पीछे नही रहते है। कहां-कहां हम किसकी-किसकी कितना बखान करें। हम आघोसित तौर पर शौक से बंद दिवस, पर्यटन दिवस, अनन सप्ताह, आरक्षण पखवारा, लोन पखवारा, लोन पखवारा, आन्दोलन माह, सुरक्षा वर्ष, धान वर्ष, आवास वर्ष, और भ्रष्टाचार वर्ष मनाये चले जा रहे है। घोषित तौर पर हम सब शान से गुंडागर्दी की स्वर्णजयंती, खुनी, डकैती की सिल्वर जयंती और आतंकवाद की रजत जयंती खुशी पूर्वक मना रहे है।



आपका – जय सिंह
 युवा कवि,व्यंगकार,कहानीकार,नाटककार एवं समाजसेवी 

बुधवार, 17 जुलाई 2013

सामाजिक वर्ण व्यवस्था की प्राण हैं- आर्थिक वर्ण व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेकना


        

बड़े-बड़े सामाजिक आंदोलनों का पोस्टमार्टम करने से पता चलता है कि वे भटक इसलिए गये, कि उनके नेतृत्व में इमानदारी थी तो योग्यता नहीं और अगर योग्यता थी तो र्इमानदारी नहीं। भावी समाज का नेतृत्व किसी के हाथ में देते समय एक सावधनी तो यह बरतनी है।
दूसरी सावधनी यह बरतनी है, कि भावी समाज एक ऐसा समाज हो, जिसमें आदमी की योग्यता की एवं उसके कर्म की कद्र होती हो, न कि जन्म की। जन्म के आधार पर भारतीय संस्कृति की वर्ण व्यवस्था बनी है। इसका सैद्धांतिक महिमामण्डल चाहे जितना कर लिया जाये, इसका व्यवहारिक प्रचलन तो भावी समाज के रचायिताओं को कदापि स्वीकार नहीं हो सकता। जन्म के आधर पर कुछ लोगोें को सम्मान और कुछ लोगों को अपमान परोसने वाली इस सामाजिक बुरार्इ ने आरक्षण रूपी जातिवादी बुरार्इ को जन्म दिया। सामाजिक न्याय कायम करने के लिए अनेक प्रयोग चल रहे हैं, लेकिन अब तक के जितने भी प्रयोग सामने आये, उन सबको जब सच्चार्इ में तपाया गया तो इन प्रयोगों की खाक तक नहीं बची। यह देखा गया है कि आरक्षण का खाका अपमान के लिए आरक्षित समुदाय में एक अल्पसंख्यक महाजन वर्ग तो पैदा कर सकता है लेकिन यह दलित समाज के घर-घर में रोशनी का दीप नहीं जला सकता। 

साल भर में जितनी जगहें आरक्षण से भरी जाती है उसकी सौ गुना जनसंख्या हर साल दलित समाज में पैदा हो जाती है। अब तो लगभग सारे दलित शुभचिंतक मानने लगे हैं कि दलित समुदाय में पैदा हो रहा अल्पसंख्यक नवध्नाडय वर्ग दलितों के पूरे समुदाय का भला चाहता ही नहीं। क्योंकि यह नवधनाडय वर्ग यह तो चाहता है कि जन्म के आधर पर बाप का तिरस्कृत व अपमानित जीवन बेटे को उपहार में न दिया जाए। अमीर दलित यह चाहता है कि सामाजिक विरासत और सामाजिक उत्तराधिकार बेटे को देने वाली परम्परा खत्म हो। दलित महाजन सामाजिक दासतां की बेडि़यों को एक क्षण बरदाश्त करने को तैयार नहीें है। वह नहीं चाहता कि बाप को अपमान का आरक्षण झेलना पड़ा तो बेटे को भी झेलना पड़े। वह चाहता है कि आदमी की कीमत उसके कर्मों से हो, न कि जन्म से। वह चाहता है कि यदि अपमानित व्यकित का बेटा योग्य हो, तो उसे वहीं सम्मान दिया जाये जो किसी सम्मानित व्यकित के योग्य बेटे को मिलता है। दलितों के नवध्नाडय लोगों में इस बात को गहरी निष है कि सामाजिक अवसरों की समता सभी के लिए सुलभ हो। मान-आपमान का संबंध् उसके कर्मों से हो। योग्यता के बल पर सम्मान पाने की सामाजिक आजादी सभी को मिले।
'' आर्थिक असामनता जातिगत असमानता से भी गंभीर मुíा है यदि 1950 में संविधन लागू होते समय नेहरु इस सिथति को भांप लिये होते कि भारत में गरीबी का ताना बाना जाति और वर्ग से बुना गया है तो जाति के लांछन के बगैर ही सामाजिक और आर्थिक दृषिट से एक वास्तविक कल्याणकारी राज्य की आधारशिला रख चुके होते तत्कालीन विधि मंत्री डा. बी. आर. अम्बेडकर जिन्हें दलितों का मसीहा माना जाता है। आरक्षण के पक्ष में नही थे, क्योंकि वह इस प्रकार के आरक्षण को बैसाखी मानते थे। बहुत मान-मनुहार के बाद उन्होने कोटा प्रणाली को संविधान में शामिल किया इस प्रावधन के साथ कि सभी प्रकार के आरक्षण एक दशक के भीतर समाप्त हो जाएंगे। किन्तु भारत में  चुनावी राजनीति ने ऐसा रुप धारण कर लिया कि तत्कालीन सत्तारुढ़ दल कांग्रेस को भी जीत के लिए आरक्षण का समर्थन करना जरुरी हो गया। हर दसवें साल सर्वसम्मति से आरक्षण और दस  वर्षों के लिए बढ़ा दिया जाता है । सभी दलों  ने विभिन्न जातियों में अपने-अपने नेता उभार लिए हैं। ये सभी आरक्षण को गाय के समान पावन मानते हैं। चार दशक से भी अधिक समय बीत गया किन्तु अभी तक आरक्षण को किसी ने चुनौती नहीं दी। ये रियायतें अगले 50 वर्षों में भी समाप्त नहीं होगीं। कोटा कायम रखने के लिए निहित स्वार्थ विकसित हो गए हैं।

यदि  वास्तव में दलित महाजनों की निष्ठा वर्णव्यवस्था को मिटाने में होती, तो उनकी निष्ठा कर्म प्रधान समाज की रचना करने में भी होती। तो वे केवल यह नही कहते कि सामाजिक विरासत बेटे को देने वाली परम्परा खत्म हो, वे यह भी कहते, कि आर्थिक विरासत भी बेटे को देने वाली परम्परा खत्म हो। यदि दलित महाजन वास्तव में पूरे दलित समुदाय के शुभचिंतक होते, तो वे केवल यह नहीं कहते कि सामाजिक उत्तराधिकार की परम्परा रोकी जाए, से यह भी कहते कि आर्थिक उत्तराधिकार का कानून खत्म किया जाए। यदि दलित महाजन यह सोचते कि हर एक दलित के घर में न्याय और सम्मान का दीपक जले, तो वे केवल सामाजिक दासता की बेडि़याें पर ही कुल्हाड़ी नहीं चलाते, अपितु आर्थिक दासता की बेडि़यों पर भी कुल्हाड़ी चलाते। तब वे केवल यह नहीं चाहते कि बाप को भले ही आपमान के लिए आरक्षित रहना पड़ा, बेटे को मुक्त किया जाए। वह यह भी चाहता कि बाप भले ही गरीबी के दलदल में छटपटाता रहे तो , बेटे को गरीबी से मुक्त किया जाए।

अगर दलित महाजनो की रुचि दलित उद्धार में होती, तो वह केवल यही नारा नहीं लगाता, कि मान-अपमान कर्म से हो, जन्म से नहीं। वह यह नारा भी लगाता कि अमीरी-गरीबी कर्म से हो, जन्म से नहीं। वह केवल यह तर्क नहीं देता कि सदियों से अपमानित व्यकित का बेटा योग्य हो, तो उसे अपमान के अभिशाप से मुक्त करके वैसा ही सम्मान दिया जाए, जैसा कि किसी सम्मानित बाप के योग्य बेटे को दिया जाता है। वह यह तर्क भी देता कि गरीब बाप का बेटा यदि योग्य हो, तो उसे गरीबी के अभिशाप से मुक्त करके उसे वैसी हो सम्पन्नता से नवाजा जाए जैसी सम्पन्नता किसी अमीर बाप के बेटे के लिए कानूनन आरक्षित होती है। यदि दलित महाजनों में सामाजिक न्याय कायम करने को कोर्इ रूचि होती तो वे केवल सामाजिक अवसरों की समता मांगकर चुप्पी नहीं साध लेते। अपितु वे आर्थिक अवसरों की समता की मांग भी करते। तब वे केवल सामाजिक आजादी में मुकित का मार्ग नही देखते। अपितु आर्थिक आजादी की लड़ार्इ भी लड़ते। यह सब प्रमाण हैं- आरक्षण व्यवस्था के खोखलेपन का, वर्णव्यवस्था के खिलाफ झूठी लड़ार्इ का और सामाजिक न्याय के आन्दोलन के भटक जाने का।

वर्ण व्यवस्था के संकीर्ण रचनाकारों ने कुछ लोगों को जन्म से सम्मान का आरक्षण और कुछ लोगों को अपमान का आरक्षण दिया। इस व्यवस्था को सैद्धांतिक आधार देने के लिए पुर्नजन्म की कल्पना की गर्इ। एक साजिश को समाज में चलाने के लिए दूसरे झूठ का सहारा लिया। इसी पुर्नजन्म के सिद्धांत को लोगों के दिलो-दिमाग में घोट-घोटकर पिलाया गया और अभी तक पिलाया जा रहा है। यह बताया गया कि तुम्हारे पिछले जन्म के कर्म वर्णव्यवस्था के हिसाब से खराब थे, इसलिए तुम अपमानित जगत के परिवार में पैदा हुए हो। अब जीवन भर प्रायशिचत करो। लोगों के जूते अपने सिर पर रखकर ढ़ोओ। लेकिन जिसके जूते ढ़ोओ, उसको स्पर्श मत करना। स्पर्श करोगे तो प्रायशिचत में विघ्न पड़ जाएगा। इस जन्म में भी अधर्म हो गया, तो अगला जन्म फिर इसी जाति में पाओगे। इसलिए बड़ी जातियों के लोगों के दास बनकर जिन्दगी गुजार दोगे तो अगले जन्म में बड़ी जाति में पैदा होने का मौका मिलेगा।
पूर्वजन्म की इस मनगढ़न्त आनुवांशिक भौतिकी ने शूद्रों को अत्याचार सहने लायक बनाया और वे जीवन को ऐसे गुजारने लगे जैसे अदालत से दण्ड पाने के बाद कोर्इ मुजरिम जेल में अपने जीवन के सारे स्वाभिमान को खूंटी पर टांग कर जीने लगता है। कलयुगी अदालत तो 20 साल की कैद को ही आजीवन कैद मानकर संतुष्ट हो जाती है लेकिन कथित सतयुगी अदालत तो दुधमुंहें बच्चे को बचपन से ही कारागार में भेजती रही है।

जरा गौर कीजिए कि जब एक गरीब मजदूर, गरीब रिक्शा वाले, गरीब चपरासी, गरीब अèयापक, गरीब किसान, गरीब घरेलू नौकर के दुधमुंहे बच्चे को बाप का काम ही करने के लिए बाप से ही बाèय करवाया जाता है तो क्या यह वर्णव्यवस्था के अत्याचार से अलग कोर्इ कहानी है? उस दुधमुंहे बच्चे की ओर से अगर तथाकथित इस सतयुगी अदालत में कोर्इ जनहित याचिका दायर करके बच्चे का वकील अदालत से प्रश्न करे कि क्या ठेले वाले का बेटा ठेला चलाने के लायक ही था? क्या रिक्शा वाले का बेटा रिक्शा चलाने के अलावा कोर्इ और काम नहीं कर सकता था? क्या किसान का बेटा सम्पन्नता के लिए आरक्षित अधिकारी नहीं बन सकता था? क्या झाड़ू-पोछा लगाने वाले घरेलू नौकर का बच्चा झाड़ू-पोछा लगाने के लिए ही पैदा हुआ है? क्यों गरीबों के बच्चों को जन्म के आधार पर दण्ड दिया जा रहा है? क्यों जन्म लेते ही गरीबी और अपमान का प्रमाण-पत्र उनके गले में लटका दिया जाता है? आखिर क्यों?
इन सवालों को सुनने के बाद परम्परावादी कथित सतयुगी अदालत अगर 24 कैरेट  शुद्व होगी, तब तो वह सवाल करने वाले को ही फांसी की सजा सुना देगी। कहेगी-तुमने अधर्म किया है, अगले जन्म में तुम शुद्र परिवार में पैदा होेगें और अगर ऊंची जाति में पैदा हो भी गये, तो किसी गरीब परिवार में पैदा होंगे। तुम्हारा जीवन तुरन्त छीना जाता है। अगर अदालत 24 कैरेट से कम पवित्रा हुर्इ तो वकील को फांसी न देकर केवल यह कहकर चुप हो जायेगी कि पिछले जन्म में कर्म खराब थे, इसलिए गरीब के घर में उसका जन्म हुआ है। 

वर्णव्यवस्था ने सम्मान और सम्पन्नता दो चीजें एक तरह के लोगों के लिए आरक्षित है, अपमान एवं विपन्नता दूसरे तरह के लोगों के लिए है। वर्ण व्यवस्था के खात्मे के जो भी आन्दोलन इतिहास में अब तक चलाये गये हैं, उनमें सम्मान-अपमान के आरक्षण का मामला खूब चर्चा में आया। लेकिन अमीरी-गरीबी का आरक्षण भी पुर्नजन्म तथा वर्णव्यवस्था की उपज है, यह बात छिपाकर रखी गर्इ। सामाजिक वर्णव्यवस्था खत्म होनी चाहिए, इसके लिए बड़े आन्दोलन हुए हैं। लेकिन आर्थिक वर्णव्यवस्था भी खत्म होनी चाहिए, इसका जिक्र भी नहीं किया गया, क्यों?

अगर ऊंची जाति के लोग यही सवाल उठा दें, कि यदि दलित आन्दोलन, दलित चिन्तन, दलित साहित्य के रचनाकार अमीरी-गरीबी के आरक्षण को अमीर-गरीब परिवारों से जोड़कर बनाये रखने में श्रृद्धा रखते हैं, तो फिर से सवर्णोें के मान-सम्मान का आरक्षण पूर्ववत बनाये रखने में बुरार्इ क्या है? अगर असवर्ण लोगों को केवल एक अत्याचार करना पसन्द है, तो सवर्ण लोगों को दो अत्याचार करना पसंद है! अगर गरीबों पर अत्याचार करना दलित महाजनों को पसंद है तो दलितों पर अत्याचार करना सवर्णों को पसंद है! अगर गरीब के बेटे को गरीब देखना, दलित महाजनों को अच्छा लगता है तो अछूत के बेटे को अछूत देखना सवणोर्ं को अच्छा लगता है! गरीबों को गाली देकर बात करना यदि दलित महाजनों के लिए आèयातिमक आस्था का विषय है, तो दलित महाजनों को गाली देकर बात करना सवर्णों के लिए आस्था का विषय है! यदि दलित महाजनों की आस्था में किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, तो सवर्णों की आस्था में हस्तक्षेप का अधिकार दलितों को कैसे मिल गया? जो आर्थिक अन्याय की वर्ण व्यवस्था बनाकर रखना चाहता है, वह किस मुंह से सामाजिक न्याय की वर्णव्यवस्था को उखाड़ने की मांग करेगा? यह एक गम्भीर एवं सोचनीय प्रश्न है इस पर गम्भीरता से विचार करना होगा और समाजिक वर्ण व्यवस्था की प्राण, आर्थिक वर्ण व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेकना होगा। 

जय सिंह 

समाजिक क्रांति के अग्रदूत ''संत गाडगे बाबा''




आधुनिक भारत को जिन महापुरूषों पर गर्व होना चाहिए उनमें राष्ट्रीय संत गाडगे बाबा का नाम सर्वोपरि है, यदि ऐसा कहा जाय तो कोर्इ गलत नहीं होगा। मानवता के सच्चे पुजारी सामाजिक समरसता के धोतक निष्काम  कर्मयोगी यदि किसी को माना जाए तो वह थे संत गाडगे बाबा वास्तव में गाडगे बाबा के जीवन से उनके कार्यों से तथा उनके विचारों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। हम समाज और राष्ट्र को काफी कुछ दे सकते हैं। गाडगे बाबा ने अपने जीवन और विचारों एवं कार्यों के माध्यम से समाज और राष्ट्र के सम्मुख एक अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया जिसकी आधुनिक भारत को वास्तव में महती आवश्यकता है।
महाराष्ट्र सहित समग्र भारत में सामाजिक समरता, राष्ट्रीय एकता, जन जागरण एवं सामाजिक क्रानित के अविरत स्रोत के उदवाहक संत गाडगे बाबा का जन्म 23 फरवरी सन 1876 को महाराष्ट्र के अकोला जिले के खासपुर गाव त्रयोदशी कृष्ण पक्ष महाशिवरात्री के पावन पर्व पर बुधवार के दिन धोबी समाज में हुआ था। बाद में खासपुर गाव का नाम बदल कर शेणगाव कर दिया गया। गाडगे बाबा का बचपन का नाम डेबूजी था। संत गाडगे के देव सदृश सन्दर एवं सुडौल शरीर,  गोरा रंग, उन्नत ललाट तथा प्रभावशाली व्यकितत्व के कारण लोग उन्हें देख कह कर पुकारने लगे कालान्तर में यही नाम अपभ्रश होकर डेबुजी हो गया। इस प्रकार उनका पूरा नाम डेबूजी झिंगराजी जाणोरकर हुआ। उनके पिता का नाम झिंगरजी माता का नाम सााखूबार्इ और कुल का नाम जाणोरकर था। गौतम बुद्व की भाति पीडि़त मानवता की सहायता तथा समाज सेवा के लिये उन्होनें सन 1905 को ग्रहत्याग किया एक लकडी तथा मिटटी का बर्तन जिसे महाराष्ट्र में गाडगा (लोटा) कहा जाता है लेकर आधी रात को घर से निकल गये। दया, करूणा, भ्रातभाव, सममेत्री, मानव कल्याण, परोपकार, दीनहीनों के सहायतार्थ आदि गुणों के भण्डार बुद्व के आधुनिक अवतार डेबूजी सन 1905 मे ंग्रहत्याग से लेकर सन 1917 तक साधक अवस्था में रहे।
महाराष्ट्र सहित सम्पूर्ण भारत उनकी तपोभूमि थी तथा गरीब उपेक्षित एवं शोषित मानवता की सेवा ही उनकी तपस्या थी।
गाडगे बाबा शिक्षा को मनुष्य की अपरिहार्य आवश्यकता के रूप में प्रतिपादित करते थे। अपने कीर्तन के माध्यम से शिक्षा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुये वे कहते थे ''शिक्षा बडी चीज है पैसे की तंगी हो तो खाने के बर्तनन बेच दो औरत के लिये कम दाम के कपड़े खरीदो। टूटे-फूटे मकान में रहो पर बच्चों को शिक्षा दिये बिना न रहो।''
बाबा ने अपने जीवनकाल में लगभग 60 संस्थाओं की स्थापना की और उनके बाद उनके अनुयायियों ने लगभग 42 संस्थाओं का निर्माण कराया। उन्होनें कभी कहीं मनिदर निर्माण नहीं कराया अपितु दीनहीन, उपेक्षित एवं साधनहीन मानवता के लिये स्कूल, धर्मशाला, गौशाला, छात्रावास, अस्पताल, परिश्रमालय, वृध्दाश्रम आदि का निर्माण कराया। उन्होनें अपने हाथ में कभी किसी से दान का पैसा नहीं लिया। दानदाता से कहते थे दान देना है तो अमुक स्थान पर संस्था में दे आओ।
बाबा अपने अनुयायिययों से सदैव यही कहते थे कि मेरी जहां मृत्यु हो जाय वहीं पर मेरा अनितम संस्कार कर देना, मेरी मूर्ति, मेरी समाधि, मेरा स्मारक मनिदर नहीं बनाना। मैनें जो कार्य किया है वही मेरा सच्चा स्मारक है। जब बाबा की तबियत खराब हुर्इ तो चिकित्सकों ने उन्हें अमरावती ले जाने की सलाह दी किन्तु वहां पहुचने से पहले बलगाव के पास पिढ़ी नदी के पुल पर 20 दिसम्बर 1956 को रात्रि 12 बजकर 20 मिनट पर बाबा की जीवन ज्योति समाप्त हो गयी। जहां बाबा का अनितम संस्कार किया गया आज वह स्थान गाडगे नगर के नाम से जाना जाता है।
वस्तु सिथति तो यह है कि महाराष्ट्र की धरती पर समाज सेवक संत महात्मा, जन सेवक, साहित्यकार एवं मनीषी जन्म लेगें परन्तु मानव मात्र को अपना परिजन समझकर उनके दु:खदर्द को दूर करने में अनवरत रूप से तत्पर गाडगे बाबा जैसा नि:स्पृह एवं समाजवादी सन्त बड़ी मुशिकल से मिलेगा क्योंकि रूखी-सूखी रोटी खाकर दिन-रात जनता जनार्दन के कष्टों को दूर करने वाला गाडगे सदृश जनसेवी सन्त र्इश्वर की असीम कृपा से ही पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
मानवता के पुजारी दीनहीनों के सहायक संत गाडगे बाबा में उन सभी सन्तेचित महान गुणों एवं विशेषताओं का समावेश था जो एक मानवसेवी राष्ट्रीय सन्त की कसौटी के लिये अनिवार्य है।

जय सिंह 

पांच अरकान पर इस्लाम की बुनियाद

 कलमा, नमाज, रोजा, जकात और हज। इस्लाम की बुनियाद इन पांच अरकान पर टिकी है। इन पांचों को फर्ज मानते हुए जो इंसान इस्लाम में दाखिल होता है उसकी जिंदगी आसान और खुशगवार गुजरती है। हर अरकान की अपनी फजीलत है। एक भी अरकान जिसे इंसान अपना फर्ज नही मानता वह इस्लाम से बाहर होता है। हर मुस्लिम को रमजान मुबारक का अहतराम और इबादत करनी चाहिए। इस माह में इस्लाम के पांच रूकुनों में से चार पूरे होते है।


तौहीद: अल्लाह को एक मानना। उसकी जात में किसी दूसरे को शरीक न करना। साथ ही अल्लाह के नबी को अखिरी पैगंबर मानना। आखिरी किताब कुरान-ए-पाक है। इसमें पूरा दीन मुकम्मल कर दिया है। तौहीद कुबूल करने के बाद ही इंसान इस्लाम में दाखिल होता है।

नमाज: हर मुसलमान पर पंच वक्त की नमाज फर्ज है। नमाज में छूट किसी भी हालत में नही है। जब तक आदमी होश में है, तब तक उस पर नमाज माफ नही है। अगर आदमी सफर में है, तो भी उस पर नमाज की छूट नहीं है। औरतों के लिए माहवारी के दौरान नमाज की छूट है।

रोजा: रमजान माह में रोजे फर्ज है। अल्लाह ताला इस मुबारक माह में आजमाता है कि कौन कितना परहेजगार है। रोजे के बारे में अल्लाह ने फरमाया है कि इसका अजर मै खुद ही दूंगा।

जकात: जकात हर साहिब-ए-निसाब पर फर्ज है। इसमें जिस के पास साढ़े सात तोला सोना या साढ़े बावन तोले चांदी या फिर इनके बराबर रकम हो उसे भी पूरा एक साल हो चुका हो तो हर आदमी पर जकात फर्ज हो जाती है।

हज: मुसलमान पर जिंदगी में सिर्फ एक बार हज करना फर्ज है। हज भी उसी शक्ल में फर्ज है, जब हज जाने वाले के पास इतना पैसा हो कि वह हज के दौरान रहन-सहन, आने-जाने का खर्च उठा सके। इसके अलावा जितने दिन के लिए हज की जियारत पर है, उतने दिन इसके परिवार को खाने-पीने आदि की दिक्कत न हो।

आप सभी को पाक रमजान महीने की ढेर सारी शुभकामनाये

जय सिंह 


शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

बाबासाहेब डा0 भीमराव अम्बेडकर: संक्षिप्त झलकियां



 जय सिंह



युगदृष्टा बाबासाहेब डा0 अम्बेडकर भारत की धरती पर तथागत बुद्ध के बाद दूसरे ऐसे महापुरूष हुए हैं जिन्होने भारत की धरती से लुप्त करूणा, मैत्री और बंधुत्व को फिर से स्थापित किया। मध्यप्रदेश के इन्दौर जिले के महू में 14 अप्रैल 1891 चैदहवीं सन्तान के रूप में सूबेदार रामजीराव के परिवार माता भीमाबाई की कोख से जन्में। महाराष्ट्र को अपना कर्म भूमि अपने विद्वतापूर्ण भाषणों, तर्को से परिपूर्ण, प्रतिभा के धनी, दुनिया के महानतम विद्वान, युगपुरूष, युगपरिवर्तक, प्रकाण्ड पंडित, महान राष्ट्र भक्त, भारतीय संविधान के निर्माता, करोड़ो दलित शोषित उपेक्षित जनता के मुक्तिदाता, नारी जाति के उद्धारक, बोधिसत्व बाबासाहेब डा0 भीमराव अम्बेडकर के जीवन पर कुछ संक्षिप्त झलकियां-

विद्यार्थी- 
तंग वातावरण, गरीबी, अर्थभाव के बावजूद सन् 1907 में प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल, सन् 1912 में एलीफेन्टन कालेज, बम्बई से फारसी व अंग्रेजी में बी0ए0 परीक्षा उतीर्ण करके राजनीतिशास्त्र में शिक्षा के लिए अमेरिका की न्यूयार्क कोलम्बिया विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। उन्होने इस विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, और मानवशास्त्र में 1914 में एम0ए0 की परीक्षा उतीर्ण की। 1916 में पी0एच0डी0 की उपाधि प्राप्त करके एम0एस0सी0 (इकोनामिक्स) में दखिला लिये और 1921 में ‘प्रोविन्सयल डीसेंट्रलाइजेशन आफ इम्पीरियल फाइनेन्स इन ब्रिटिश इण्डिया‘ पर तैयार किया गया शोध प्रबन्ध स्वीकार हुआ। 1922 में डी0एस0सी0 तथा वार-एट-ला की डिग्री लन्दन विश्वविद्यालय से प्राप्त की इसके बाद एल0एल0डी0 व डी0लिट0 की उपाधि प्राप्त की। उनका बक्सा देश-विदेश की अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की डिग्रियों से भरा था। पं0 नेहरू डा0 अम्बेडकर को चलता-फिरता विश्वविद्यालय कहते थे, इसी कारण महाराष्ट्र व समीपवर्ती राज्यों में उनका जन्मदिन ‘‘विद्यार्थी दिवस‘‘ के रूप में मनाया जाता है।

सरकारी अफसर-
बी0ए0 पास करने के बाद 1917 में बड़ौदा महाराजा सिवाजीराव गायकवाड़ की स्टेट के फौज में लेफटीनेन्ट के पद पर व अर्थ सचिव के पद पर आरूण हुए। परन्तु स्वाभिमानी होने के कारण छुआछुत की गंदी बीमारी के कारण नौकरी छोड़ दी।

प्राध्यापक-
बड़ौदा स्टेट से नौकरी छोड़कर डा0 अम्बेडकर बम्बई चले गये और वही सीडेनहम कालेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए। उनकी तर्क, तथ्यपरक व विद्वतापूर्ण ढंग से पढ़ाने की शैली के कारण उनके सहयोगी विद्यार्थियों की जगह बैठते थे। बाद में 1928 में बम्बई ला कालेज के प्राध्यापक व प्रिन्सिपल हुए।

विद्याप्रेमी-
शिक्षा सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। डा0 अम्बेडकर कहते थे, कि मनुष्य जन्म से लेकर मरने तक विद्यार्थी रहता है। वे स्वंय विद्या के उपासक रहे, वे स्वयं चलता-फिरता विश्वविद्यालय थे। वे विद्या के असितत्व का महत्व जानते थे, इस कारण जुलाई 1945 में पीपुल वेलफेयर सोसाइटी आफ इण्डिया नामक शैक्षणिक संस्था का गठन किया। औरंगाबाद में मिलिंद कालेज, मराठवाड़ा विद्यापीठ, बम्बई में सिद्धार्थ कालेज गठन किया।

सम्पादक-
बाबासाहेब डा0 अम्बेडकर समझते थे कि जिस समाज का हर व्यक्ति पढ़-लिखकर वैचारिक क्रान्ति नहीं लाता तब तक उस समाज का उद्धार नहीं होता। वैचारिक क्रान्ति लाने में प्रेस व अखबार की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। इसलिये 1920 में साप्ताहिक पेपर ‘‘मूकनायक‘‘, 1927 में ‘‘बहिष्कृत भारत‘‘, 1930 में ‘‘साप्ताहिक जनता‘‘ व प्रबुद्ध भारत‘‘ निकालकर जनजागृति का शंखनाद कर जनता को जनता के अधिकारों के प्रति सचेत किया।

सफल वकील-
एक वकील की सफलता उसके तर्क तथ्यपूर्ण भाषणों व कानूनी पेचीदगियों की परिभाषा पर पूर्णतया निर्भर करती है। स्वयं एल0एल0डी0 व बार एट ला होने के कारण सभी केस जीते। परन्तु अछूत होने के कारण धर्मान्ध सवर्ण दिन के उजाले में मिलने से कतराते थे, शाम होते ही वरली (मुम्बई) की डबकचाल (मजदूर चाल) का पता पूछते उनके घर कानून की परिभाषा पूछने आते थे।

समाजशास्त्री-
बाबासाहेब अस्पृश्य समाज के होने के कारण उन्हे दर-दर पर अपमान के कड़वे घ्ंट पीने को मजबुर होना पड़ता था, इसलिये उन्होनें समाज के समाजशास्त्री ढाचें का गहन अध्ययन किया। अध्ययन के पश्चात समाजिक विषमता को दूर करने के लिए 1916 में ‘‘भारत में जातिया और उनका मशीनीकरण‘‘, 1948 में ‘‘अछूत कौन‘‘, 1935 में ‘‘जातिभेद का उच्छेदन‘‘ और 1946 में ‘‘अछूत कौन और कैसे‘‘ शोधपूर्ण ग्रन्थ लिखकर सम्पूर्ण भारत व जगत को बताया की आज का शूद्र एक जमाने में भारत का शासनकर्ता था।

नारी उद्धारक-
बाबासाहेब ने 1926 से लेकर 1956 तक भारतीय नारी ‘‘अबला‘‘ का सामाजिक, राजकीय, कानूनी दर्जा बढ़ाने में काफी मेहनत कर एक पूर्ण नारी बनाया। 1954 में सम्पत्ति में बराबर का अधिकर दिलाया। उन्होने  हिन्दू स्त्री का ‘‘उत्थान व पतन‘‘ नामक मोटी किताब लिखकर भारतीय नारी की विवेचना की। बाबासाहेब ने कायदे प्रो0 धर पूरे व धर्मशास्त्री पंडित श्री टी0आर0 व्यंकटरामाशास्त्री के साथ बैठकर विचार-विमर्श कर ‘‘हिन्दू कोड बिल‘‘ बनाया जिसके तहत आज हिन्दू स्त्री, पुरूषों से कंधा से कंधा मिलाकर बराबर काम करती है। उन्होने स्वयं पूरे भारत घुम-घुम कर ‘‘स्त्री-जागृति‘‘ का शंखनाद किया।

सामाजिक कार्यकर्ता-
अछूतों की दशा, सार्वजनिक तनाव, कुओं पर पानी भरने में पाबन्दी, नाई द्वारा बाल काटने से इन्कार, मंदिरों में प्रवेश वर्जित, सार्वजनिक तालाबों में वर्जित, मलेच्छ जानवरों की पूजा करना, लेकिन मानव को नकारना, इन कुरीतियों से सम्पूर्ण हिन्दू समाज ग्रसित था। डा0 अम्बेडकर विदेशों में पढ़ाई-लिखाई पूरी कर भारत के शूद्रों के संग्राम में कूद पड़े। सन् 1918 में अस्पृश्य सम्मेलन नागपुर में कर, 1924 में ‘बहिस्कृत हितकारिणी‘ सभा का गठन किया। 19 मार्च 1927  में महाड़ चोबदार तालाब सत्याग्रह तथा 2 मार्च 1930 में नासिक का कालाराम मंदिर सत्याग्रह का कुशल नेतृत्व कर रण बिगुल फूक कर कांग्रेस, गाँधी व मनुवादी मानसिकता के पोषकों की दोहरी नीति को ताक में रखकर पिछड़े वर्ग को मानव अधिकार का नारा दिया।

विधानशास्त्री-
बाबासाहेब को भारतीय संविधान का पिता कहा जाता है। वह स्वयं कानून की उच्चतम उपाधियों से अलंकृत थे। उनकी चिरस्मरणीय कृति ‘‘भारतीय संविधान‘‘ है। जिसे विश्व का सर्वोच्चतम संविधान कहा जाता है जिसको 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में लिखा। इसी कारण विदेशों से कई मानद उपाधियाॅ देकर गौरव प्रदान किया गया।

राजशास्त्री-
डाॅ0 अम्बेडकर वास्तव में देश को नया मोड़ देना चाहते थे। इसलिये उन्होंने कार्यप्रणालियों, उनका प्राचीन व अर्वाचीन इतिहास का अध्ययन कर राजनीतिशास्त्र के जाने माने व्यक्ति बन गये थे। सन् 1939 में ‘संघ बनाम स्वतंत्रता‘, 1940 में ‘‘थाट्स आॅन पाकिस्तान‘‘, 1947 में ‘राज्य व अल्पसंख्यक‘ ग्रन्थ लिखकर उनके व्यक्तित्व की झलक देखने को मिलती है।

अर्थशास्त्री-
बाबासाहेब स्वयं सीडेहनम कालेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे। मार्च 1923 में ‘‘रूपये की समस्या‘‘ उसकी उद्भव व समाधान ग्रन्थ लिखा व पी0एचडी0 की। 1916 में ‘‘भारत का राष्ट्रीय अंश‘‘, 1917 में ‘‘भारत लघु कृषि व उनके समाधान‘‘, 1923 में ‘‘ब्रिटिश भारत में साम्राज्यवादी वित्त का विकेन्द्रीकरण‘‘, 1925 में ‘‘ब्रिटिश भारत में प्रान्तीय वित्त का अभ्युदय‘‘ लिखकर अर्थशास्त्र के क्षितिज पर दीप्तिमान तारे के रूप में छा गये।

राजनीतिज्ञ-
बाबासाहेब कहते थे- समाज के उत्थान के लिए सामाजिक क्रान्ति के बिना राजनैतिक क्रान्ति अधूरी है। जिस समाज के पास राजनीतिक चाभी है, वह हर ताला खोलकर प्रगति करता है। वे आज की तरह गंदी, घिनौनी, भ्रष्ट राजनीति के समर्थक नहीं थे। वे राजनीति में हमेशा विवादास्पद व्यक्ति रहे। 1942 में ‘गांधी व अछूतों की विमुक्ति‘, 1943 में रानाडे, गाॅधी व जिन्ना, 1945 में कांग्रस व गाॅधी ने अछूतों के लिए क्या किया। किताबे लिखकर महात्मापन की पोल खोल दी। 1926 में बम्बई विधानसभा के लिए मनोनीत हुए। उसी समय साइमन कमीशन के सामने साक्ष्य दी। 1930-1931 तथा 1931-1932 में क्रमशः प्रथम व द्वितीय गोलमेज सम्मेलन लंदन में गये और वहां दलितों के लिये अधिकार प्राप्त किये। नवम्बर 1946 में पश्चिम बंगाल के खुलना जिले से संविधान सभा के लिये निर्वाचित हुए। मार्च 1952 में राज्यसभा के लिये निर्वाचित व काका कालेलकर आयोग में साक्ष्य दिया। 1948 में शेड्यूल्ड काॅस्ट फेडरेशन आॅफ इण्डिया व बाद में रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इण्डिया का संविधान लिखा।

स्वाभीमानी मंत्री-
डा0 अम्बेडकर जुलाई 1942 से 19 मई 1948 तक वाइसराय कौलि में श्रम मंत्री रहे। स्वतंत्र भारत में पं0 नेहरू के कहने के अनुसार मंत्रिमण्डल में कानून मंत्री बने। नेहरू अम्बेडकर को मंत्रीमण्डल का हीरा कहते थे, किन्तु चर्चित हिन्दू कोडबिल पर पंडित नेहरू से मतैक्य न होने के कारण तुरन्त त्याग-पत्र देकर एक आदर्श प्रस्तुत किया। बाबा साहेब के निर्वाण के बाद उसी बिल को कांग्रेस ने टुकड़ों-टुकड़ों में बाॅटकर लागू किया।

मजदूर नेता-
वे जानते थे की इस देश की अर्थव्यवस्था में शासन प्रणाली ही श्रमिक वर्ग पर टिकी हुई है, इसलिये उन्होने हमें आगाह किया कि एकजुट संघर्षरत, शोषण के विरूद्ध रहना चाहिये। बम्बई में मजदूरांे की मजदूर चाॅल में रहकर मजदूरों की ज्वलन्त समस्याओं, रहन-सहन के स्तर व मापदण्डों को जानते थे। उन्होंने 1936 में स्वतन्त्र मजदूर दल का गठन किया। कपड़ा मजदूरों को संगठित कर उनके मूल प्रश्न को लेकर सड़क पर उतरे, उन्होंने सबसे पहले मजदूरों का काम करने का समय निश्चित किया जिससे आज सभी कर्मचारी 8 घंटे काम कर अपने सुखी परिवार के साथ रहते है।

धर्मशास्त्री-
बाबासाहेब का जन्म ही धार्मिक कबीर पन्थी परिवार में हुआ था। बचपन में बिना पूजा किये अन्न तक ग्रहण नहीं करते थे। कबीर के दोहे उन्हे कंठस्थ थे। जब उन्होने धर्मान्तर की सिंह गर्जना की उसके पूर्व विश्व के सभी पंथों व धर्मों का गहन अध्ययन किया। बाईबिल पढ़कर पचा डाला, संस्कृत सीखकर हिन्दू धर्म ग्रन्थों का शव परीक्षण कर डाला, उन्हे सभी ग्रंथों में एक ही सूत्र मिला, ‘‘चमत्कारी ईश्वर‘‘ परन्तु बौद्ध धर्म साहित्य में चमत्कारी ईश्वर का अस्तित्व नकार कर मानव कल्याण ही मानव को निर्वाण पद पर प्रतिष्ठित करता है। यह बात मन में समझकर हिन्दू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्मावलम्बी हुए और एक प्रामाणिक ग्रन्थ ‘‘बुद्ध और उनका धम्म‘‘ लिखा, जिसे पढ़कर हर व्यक्ति धन्य हो जाता है।

धर्मप्रचारक-
14 अक्टूबर 1956 दशहरे के दिन बाबा साहब ने नागपुर की दीक्षा भूमि पर लाखों अनुयायियों के साथ सामूहिक धर्म परिवर्तन कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद धर्म काम में कई बार श्रीलंका गये। 1955 में भारतीय बौद्ध महासभा का गठन कर धार्मिक मंच स्थापित किया।
अन्तिम समय में काठमांडू में आयोजित ‘‘विश्व बौद्ध सम्मेलन‘‘ में भारत का प्रतिनिधित्व नवम्बर 11956 में किये उसके बाद भारत की संसद में अन्तिम भाषण 5 दिसम्बर 1956 को दिये। दिल्ली में 36 अलीपुर रोड स्थित अपने निवास में 6 दिसम्बर 1956 को परिनिर्वाण प्राप्त किये।


 जय सिंह


मो0- 9450437630

शनिवार, 30 मार्च 2013

शादी का न्योता भी फेसबुक से


वो दिल का हाल समझ लेते थें खत का मजमून पढकर, जमाना अब एसएमएस और फेसबुक का है। अब कैसे उन्हे समझाये हाल ए दिल''
दिल के उमड़ते जज्बातों को शब्दों का रूप देकर अपने पिया तक पहुंचाने का वो दौर ही कुछ और था। शादी की शुभकामनाएं देने के लिए बाजारों के चक्कर काटना और फिर वहां से एक ऐसा कार्ड चुनना कि बस उसे पाने वाला देखता ही रह जाय। कितना अच्छा था वो दौर। गुजरे जमाने की बात नही है, लेकिन पुरानी जरूर पड़ गयी है। आधुनिकता के इस दौर में आयी संचार क्रांनित की दौड़ में वो लंबे-लंबे पत्र और कार्ड शीट पर उतरी वो शानदार चित्रकारी के नमूने वाले शुभकामना संदेश वाले कार्ड पीछे रह गये है।
इनकी जगह ले ली है र्इ-कबूतरों यानी एसएमएस, र्इ-मेल और फेसबुक । अब न तो अपनों के हाल जानने के लिए कर्इ कर्इ दिनों का इंतजार बचा है और न ही कर्इ पन्नों में पूरे परिवार की बतकही। समय बदला तो मूल्य भी बदल गये। पत्र के शुरू में वो बड़ो का चरणस्पर्श और अंत में गलती क्षमा याचना अब गुजरे जमाने की बात हो गयी है, इसकी जगह ले ली है हाय, हैलो और गुडबाय ने। लंबे चौड़े पत्रों को लिखने का अब न तो लोगों के पास वक्त बचा है और न ही इसकी जरूरत समझी जाती है। परिजनों और रिश्तेदारों की कुशलक्षेम पूछनी है तो मोबाइल और इंटरनेट है न।
मोबाइल के मैसेज बाक्स में गये, चार लाइन टाइप कर सेंड कर दी और हो गयी अपनी पूरी बात। जिन लोगों के पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा है वे मेल कर अपनों का हालचाल जान लेते है। इसमें टाइम की बचत और पैसे की भी। प्रेमिका को पटाना है तो उसके घर जाकर या फिर रास्ते में कागज का टुकडा थमाने का जोखिम उठाने की जरूरत नहीं बस उसका मोबाइल नंबर मैनेज करो और एक मैसेज में दिल का हाल उसके पास होगा। रूठी हुर्इ अपनी कामकाजी पत्नी को मनाने के लिए वेडिंग एनिवर्सरी पर कार्ड तलाशने की जरूरत नहीं बस इंटरनेट पर जाओ और कोर्इ अच्छी सी तस्वीर निकालकर उसे मेंल कर दो। बन गयी न बात पैसे भी बच गये और बीवी भी मान गयी। अब तो लोग शादी के कार्ड भी छपवाने की जहमत नही उठाते है। कंप्यूटर पर ग्राफिक्स के जरिये एक सुंदर सा कार्ड तैयार  किया और उस पर पूरी शादी के कार्यक्रम का विवरण देकर एक साथ सभी मित्रों को मेल कर दिया। यही नहीं जिनको मेल नहीं कर प्यो उन्हे अपने लेजर प्रिंटर से प्रिंट निकाल कर दे दिया। समय भी बचा और आसानी से सभी के पास सूचना भी पहुंच गयी।
र्इ-मेल  और मोबार्इल एसएमएस के इस दौर में जहां इस धंधे से जुड़े लोगों की जेबें दिन दूनी रात चौगुनी की तर्ज पर भरती जा रही है, वहीं कार्ड या फिर गिफट शाप चलाने वालों का धंधा मंदा हो चला है। र्इमेल और एसएमएस के चलन की सबसे अधिक मार ग्रीटिंग कार्ड के बाजार पर पडी है। पहले जहां नये साल से लेकर कि्रसमस तक हर छोटे बडे कार्ड की मिंड होती थी वहीं अब छोटे त्योहारों पर कोर्इ कार्ड पूछने तक नही आता है। जन्मदिन और वेडिंग एनिवर्सरी की बधार्इ तो लोग एसएमएस के जरिये ही देना उचित समझते है।

                      जय सिंह

सोमवार, 18 मार्च 2013

पुस्तकालय अधिनियम 2006 को लागू कराने के लिए सोसाइटी फार प्रमोशन आफ लाइब्रेरी, उत्तर प्रदेश की बैठक सम्पन्न।

लखनऊसोसाइटी फार प्रमोशन आफ लाइब्रेरी, उत्तर प्रदेश के तत्वाधान में दिनांक- 18 मार्च दिन सोमवार को जी0पी0ओ0 के सामने डा0 भीमराव अम्बेडकर पी0जी0 छात्रावास के सभागार में समय प्रात: 11 बजे से सोसाइटी के सभी पदाधिकारियों की एक आवश्यक बैठक की गर्इ। इस बैठक में उत्तर प्रदेश में ''पुस्तकालय अधिनियम 2006'' को लागू कराने के लिए जोर दिया गया।
सोसाइटी के अध्यक्ष डा0 एम0पी0 सिंह ने बताया कि उत्तर प्रदेश में ''पुस्तकालय अधिनियम 2006'' पिछली समाजवादी पार्टी सरकार में पूर्व मुुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव द्वारा बनाया गया था। परन्तु यह अधिनियम लागू नही हो पाया और सरकार बदल गर्इ। जब बहुजन समाज पार्टी की सरकार आर्इ तो इस अधिनियम पर कोर्इ ध्यान नही दी और यह पुस्तकालय अधिनियम 2006 राजनीति का शिकार बन गयी। जब पुन: समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो पुस्तकालय समाज के लोगों में पुन: आशा की किरण जगी की शायद इस बार पुस्तकालय अधिनियम 2006 लागू हो जाय। परन्तु सपा सरकार के एक साल बीत जाने के बाद भी इस पर कोर्इ ध्यान नही दिया जा रहा है जबकि सोसाइटी के पदाधिकारी और पुस्तकालय समाज के सैकडो लोग बार-बार मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर पुस्तकालय अधिनियम को लागू कराने की मांग कर रहे है।
सोसाइटी के सचिव आदेश शर्मा ने विगत 24 फरवरी 2013 को आयोजित सेमिनार की सफलता एवं पुस्तकालय समाज के लोगों के उत्साह की सराहना करते हुए कहे कि जब तक ''पुस्तकालय अधिनियम 2006'' लागू नही हो जाता है तब तक हम सभी चैन से नहीं बैठेगें और पुस्तकालय समाज के लाखों प्रशिक्षित बेरोजगारों के हक की लडार्इ के लिए जो भी करना होगा करेंगें।
सरकार के गलत नीति से पुस्तकालय समाज के लोगों में सरकार के प्रति बहुत ही रोष ब्याप्त है, कि इतने प्रयास के बाद भी सपा सरकार द्वारा बनार्इ गर्इ अधिनियम खुद लागू नहीं कर रही है।
इस बैठक में सोसाइटी के पदाधिकारियों द्वारा निर्णय लिया गया कि यदि सरकार एक महिने के अन्दर पुस्तकालय अधिनियम 2006 को लागू नही करती है तो वे दो हजार से ज्यादा पुस्तकालय समाज के शिक्षक, छात्र, पुस्तकालयध्यक्ष और अन्य बेरोजगार लोगों के साथ मिलकर सरकार के खिलाफ धरना प्रदर्शन और चक्का जाम करेगें जिसकी पूरी जिम्मेदारी शासन प्रशासन की होगी।
इस बैठक को मुख्य रूप से स्वतंत्र शुक्ला,पी0के0 श्रीवास्तव, जय सिंह, अजय कुमार, हरिओम, सी0पी0 दूबे, अफरोज आलम, कमलेश यादव, सतीष कुमार आदि ने संबोधित किया। बैठक में लगभग 50 लोग उपस्थित  थे।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

मधुमास को खास बनाने की योजनाएं पानी भरती नजर आ रही हैं



प्रेम दिवस के साथ ही नागफनियां भी उगने लगती हैं। कालिया खिलने लगती है | जवां दिल हिलोरे मारना शुरू कर देता है | युगल लुकाछिपी शुरु कर देते हैं। प्रेम पार्क की तलाश में निकल जाते है | ये प्रेम पुजारी बचते रहते हैं कि कहीं श्रीराम भक्तों ,बजरंग दल,शिव सेना द्वारा घंटा न बज जाए। सहीराम ने अपने कवि मित्र  जय से पूछा कि इस बार क्या प्रोग्राम है। उन्होनें दबी जुबान से कहा कि क्या बताएं, मंहगाई ने जेब ढीली कर दी है और शिव,राम की सेना ने. . .
मधुमास मनाने की संभावनाएं बनने से पहले बिगड़ जाती हैं। प्रेम शुरू करने से पहले समाप्त हो जाती है | आप तो जानते ही हैं कि लव मी, लव माई डाग। दरअसल उनका डॉग बेस्लम डॉग है, बहुत चटोर है। हमेशा बढ़िया चाकलेट , बर्गर, पिज्जा ही खाता है। लव के चक्कर में डॉग की इतनी सेवा हो गई कि मधु चन्द्रिका की मिलन यामिनी को मंहगाई का ग्रहण लग गया। इस बार मधुमास को खास बनाने की सारी योजनाएं पानी भरती नजर आ रही हैं। फिर भी बड़ी मुश्किल से अठन्नी-चवन्नी जोड़कर रखा था कि 14 फरवरी को प्रेम दिवस मना ही लेंगे | लेकिन डर लग रहा है कि पकड़े गए तो स्वघोषित नैतिक ब्रिगेड के सैनिक कहीं तेरही  और श्राद्ध न कर दें। सुना है जितना राम ने सीता को नहीं खोजा था उससे अधिक श्री राम सेना वाले प्रेमी युगलों को खोज रहे हैं। अब सच बताएं सहीराम जी किसी ने सच ही कहा है कि ये इश्क नहीं आसां.... बस समझ लो आग का दरिया है डूब के जाना है।
सहीराम जी पिछले दिनों एक अद्भुत दुर्घटना मेरे साथ हो गई, वसंत के आगमन पर शहर के घोषित रसिकों ने हमेशा की तरह  ‘प्रेम पियासाज् कवि सम्मेलन किया उसमें मुझे भी आमंत्रित किया गया था। सच कहूं तो ‘मंच पर कविता पाठ का आमंत्रण पाकर मन लबालब हो गया। मैंने एक साल से कठिन परिश्रम से लिखी हुई कविता शुरू की, ‘मोहिनी तेरे नैन कटार, झंकृत होते मन के तार अभी स्वर पंचम तक पहुंचा ही था कि मंच के पीछे भगवा और त्रिशूल धारी भाइयों को अचानक देखा और मेरी श्रृंगार रस की कविता वीर रस में बदल गई। सहीराम ने आगे पूछा, क्या आपने कविता आगे सुनाई? मैंने कहा हां लेकिन ऐसे- ‘गोरी तेरे नैन कटार, कर दुश्मन को तार-तार। तोड़, मरोड़ गर्दन उसकी, बैरी छुपा है सीमा पार।
परेशानी तब हो गई जब इस अद्भुत कविता को सुनाकर श्रोताओं ने मुझे श्रृगांर और वीर रस के संयुक्त कविरसिक विद्रोही’ की संज्ञा दे दी। रसिक विद्रोही ने आंख बंद कर संत वेलेंटाइन के प्रेम मंत्र का जप किया और प्रार्थना की कि हे संत जी इन घोंघा बसंतों को सपने में समझाओ, साथ में कवि बिहारी से भी अनुरोध किया और कहा, हे रीतिकाल के केशव इन्हे विरह व्यथा से अवगत कराओ शायद इनका पाषाण हृदय पिघल जाए। इस व्यथा को सुनने के बाद सहीराम ने कहा, इस नैतिक ब्रिगेड से मुझे भी चिंता है क्योंकि इश्क तो ऐसा गुनाह है जो कुवारों के अलावा शादीशुदा भी बड़े मन से करता है।

          जय सिंह 
(पत्रकार,कवि,व्यंगकार,कहानीकार)