सोमवार, 5 मई 2014

कहानी------ कठिन डगर



किसी ने ठीक ही कहा है सफर यात्रा शब्द का वास्तविक अभिप्राय अंग्रेजी भाषा के सफर शब्द में छिपा है। मै लम्बे समय तक इसकी भुक्तभोगी रही हूं। एक दो नहीं पूरे तीन साल हमने इस सफर के मजे लिए है। उन दिनों हम बाराबंकी में रहते थे और पढने के लिए लखनऊ आया जाया करते थे। हमारी भाषा में इसे अप-डाउन कहा जाता है। जब लखनऊ विश्वविद्यालय में एडमिशन लिया तब सोचा था कि मुश्किल से एक घण्टे का सफर है यूं ही निकल जाएगा। लेकिन यकिन मानिये इस एक घण्टे का एक-एक पल बेहद भारी होता है। मेरी हमसफर एक सहेली भी थी। शुरू-शुरू में हम दोनों फैजाबाद पैसेन्जर से अप डाउन किया करते थे। इसके लिए हम आठ बजे सुबह घर छोडते तो शाम को सात बजे वापस लौटते। सहेली जरा कमजोर दिल की थी| दो दिन में हाथ खडे कर दिये। कहने लगी लौटने में रात हो जाती है। अभी ये हाल है तो जाडे में क्या होगा उस पर सात घण्टे आने-जाने में ही लग जाते है। मैने खूब मान मनौवल की दोस्ती का हवाला दिया। वरना वह तो कालेज छोडने का पूरा मन बना चुकी थी। दूसरे दिन हमें स्टेशन पहुंचने में थोडी देर हो गयी और फैजाबाद पैसेन्जर सामने से निकल गयी। अब क्या करें। सोचा दूसरी ट्रेन से चलते है। 8 बजकर 40 मिनट पर गोण्डा पैसेन्जर आयी। जिस डिब्बे में हम घुसे उसी में लडकों का जत्था घुस गया। ट्रेन में पैसेन्जर कम थे। वे लड़के हमारे सामने की सीटों पर बैठ गए। फिर कर्इ जोडी आंखे हम पर टिक गयीं। वे सिर से पांव तक इस तरह हमारा मुआयना कर रहे थे कि मानों पढने के लिए अप-डाउन का फैसला करके कोर्इ जुर्म किया हो। हम नजरें नीची किये बैठे रहे। तभी उनमें से एक बोला-अबे नीचे क्यों देख रहा है। दूसरा बोला- ताकि कोर्इ सैंडिल न चुरा लेकर जाए फिर पहले वाला लडका बोला- लेकिन सैंडिल है अच्छी। (मन मे आया कि कह दूं कि तेरे सिर पर पडेगी तो और अच्छी लगेगी लेकिन चुप ही रहने में बेहतरी समझी) तभी दूसरा बोला- अबे पैर क्यों हिल रहे है। (दरअसल मेरे पैर हिलाने की आदत ने उन्हे एक और मुददा दे दिया)
पहला बोला- ट्रेन क्यों हिल रही है।
दूसरा बोला- नही बे। लगता है पोलियो हो गया है। इतना कहना था कि मेरे पैर अपने आप ही हिलना भूल गये।
दूसरा फिर बोला- देख ठीक हो गया। और ट्रेन के डिब्बे में एक जोर का ठहाका गूंज उठा। मेरे आंखो से आंसू निकलते निकलते रह गये।) तभी मेरी सहेली अपने सरकते हुए दुपटटे को संभालने लगी। तुम-ओढो मेरी जान दुपटटा संभाल के  ़ ़़ ़ ़ ़। यह कोरस गीत तालियों के साथ उस डिब्बे को गुलजार करने लगा। हम बस तिलमिलाकर रह गये। कर भी क्या सकते थे हम दो और वे आठ-दस। उनकी घूरती नजराें से बचने के लिए हम अपनी किताबें निकालकर पढने लगे तभी उनमें से एक बोला-अरे इतना मत पढो वरना टाप कर जाओगी। बादशाह नगर स्टेशन तक यह सिलसिला चलता रहा और हम उन लडकों के लिए मजाक का विषय बनकर हर पल अपमान का घूंट पीते रहे।

वैसे बाद में मैने यह महसूस किया कि ट्रेन से अप-डाउन करने वाली लडकियों को किताबाें से प्यार हो ही जाता है। यह बात और है कि उसका इस्तेमाल वे पढने के लिए नहीं बल्कि मनचले लड़कों की घूरती नजरों से बचने के लिए करती है।
उस दिन कालेज पहुचते-पहुचते सवा बारह बज गये। पहला लेक्चर खत्म हो चुका था, दूसरा शुरू हो चुका था। सोचा पीछे से क्लास में घुस जाएंगेे लेकिन टीचर ने देख लिया और बाहर खडा कर दिया। उसी दिन हमें पता चला कि 3:40 बजे छोटी लाइन से बरौनी एक्सप्रेस जाती है। हमें छोटी लाइन पता ही न थी हमें तो सिर्फ एक ही लाइन पता थी यह कि साढे पांच बजे फैजाबाद पैसेन्जर मिलेगी। रिक्शे वाले से पूछा तो कहने लगा- पंद्रह रूपये पडेगेे। क्या करते पांच के बजाय पंद्रह रूपये देकर भागते-भागते स्टेशन पहुंचे तो नामुराद टी०टी० ने रोक लिया कि एमएसटी दिखाओ। बरौनी एक्सप्रेस का प्लेटफार्म नम्बर पता करके जब तक हम पहुचे तब तक ट्रेन चल चूकी थी गार्ड हरी झण्डी दिखा चुका था। ट्रेन जा रही थी हम उदास मन से उसे विदा दे रहे थे। आंखों के सामने से ट्रेन निकल जाने का दर्द उस दिन के बाद भी कर्इ बार सहना पडा।
 कभी टीचर ने पांच मिनट ज्यादा पढा दिया तो कभी रिक्शा मिलने में थोडी सी देर हो गयी। आंखो के सामने से जब ट्रेन निकल जाती है तो ऐसा महसूस होता है मानो किसी दस दिन के भूखे के सामने से निवाला छीन लिया गया हो और जो कभी दौडकर पकड़ लिया तो लगता है किला फतह कर लिया। पर उस दिन तो स्थितिया हमारे पक्ष में न थी । पूछताछ केन्द्र से पता चला कि सवा चार बजे गोण्डा पैसेन्जर जाएगी। गोण्डा पैसेन्जर से आने का मजा हम सुबह ही उठा चुके थे। 8:40 बजे बाराबंकी से चले तो 11:50 बजे लखनऊ पहुचे थे। लेकिन क्या कहें बुरा वक्त आता है तो सब बुरा ही होता है। बालमन ने दृढ़ता दिखायी। जल्दी घर पहुचने की चाहत ने जोर मारा। कहां सवा चार कहां साढे पांच बजे बस फिर क्या था सुबह का सफर भुलाकर हम लोग बैठ और साथ ही हमारा दुर्भाग्य भी। मल्हौर रेलवे स्टेशन पर जो ट्रेन रूकी तो फिर चलने का नाम ही नहीं ले रही थी। साढेे पाच से छ: फिर साढे सात बज गये। अंधेरा हो गया किसी को कुछ पता नही कब चलेगी। एक तो उस ट्रेन में वैसे भी कम लोग होते है और उस पर लडकों का झुण्ड। विचित्र प्रणियों का सफर तो तफरीबाजी में ही कटता पर किया भी क्या जा सकता था। जैसा कि मैं पहले ही कह चूकी हूं कि हमारी सहेली जरा कमजोर दिल की थी। लगी बुक्का फाड के रोने। मैने लाख समझाया चुप रहो। पर वो कहा मानने वाली थी । 
डिब्बे में हमदर्दी का तांता लग गया। मैंनें कहा- भगवान के लिए तमाशा मत बनाओ उसका सुबकना फिर भी बन्द नही हुआ। बगल से एक दो नहीं मालगाडी मिलाकर कुल सात गाडियां गुजरी। तभी एक एक्सप्रेस ट्रेन दुसरी पटरी पर रूकी। सबने कहा वो एक्सप्रेस है तो पहले ही जायेगी। हम दोनों भी पैसेन्जर छोड़ एक्सप्रेस पर जा बैठे पर उसने भी साथ न दिया और पैसेन्जर चली गयी। अब तो मेरा भी धैर्य जबाब दे गया। आंखो से आंसूू छलक पड़े। कुल मिलाकर रात नौ बजे हम बाराबंकी स्टेशन पहुचे। हमारे चाचा जी और हमारी सहेली के पापा जी स्टेशन पर हमारा इंतजार कर रहे थे। दूसरे दिन वो मनहुस खबर सुनने को मिल ही गयी जिसके न मिलने की हम दुआ कर रहे थे। हमारी सहेली ने ठान लिया कि अब पढार्इ छोड देगी और अगले साल बाराबंकी से बीए करेगी। अब बची मै हर रोज लडको के कमेन्ट सहने के लिये और वेसे इनसे बचने के लिए मैने एक रास्ता निकाला। बैठने से पहले मै ट्रेन में महिलाओं की तलाश करती और उसी वर्थ पर बैठती जिस पर कोर्इ आण्टी जी बैठी होती।
अप-डाउन के दौरान ट्रेन के सफर से जुड़ी एक रोचक घटना तब हुर्इ जब मै और दो सहेलियां गोरखनाथ एक्सप्रेस में बैठ गये। पिता जी ने बताया था कि लखनऊ से गुजरने वाली सारी ट्रेन बाराबंकी स्टेशन पर रूकती है। लेकिन बाद में मुझे पता चला कि हमारे पिता जी का रेलगाडी ज्ञान जरा कम थाक्योंकि वास्तव में गोरखनाथ एक्सप्रेस सीधे गोण्डा जाकर रूकती है।  जब हमें यह बात पता चली तो हमारे हाथ-पांव फुल गये। करीब साढे़ पांच बजे गोरखनाथ एक्सप्रेस बाराबंकी स्टेशन पार कर गयी। हम गेट पर खड़े के खड़े रह गये। मन में अजीब -अजीब खयाल आ रहे थे ढार्इ घण्टे में गोंडा पहुचेंगे वहां से पैसेन्जर ट्रेन पकड़कर वापस बाराबंकी आना रात के ग्यारह बारह बज जाएंगे टिकट भी नहीं है कहीं टी टी ने पकड़ लिया तो। यह सब सोचकर दिल बैठा जा रहा था। तभी जहांगीराबाद स्टेशन पर ट्रेन रूक गयी वैशाली एक्सप्रेस की क्रासिंग थी। मै ट्रेन से कूद पड़ी। इत्तेफाक से दो शख्स और भी ऐसे थे जिन्हें बाराबंकी उतरना था। जहांगीरा बाद स्टेशन मतलब एक बरगद का पेड़। हमने एक व्यक्ति से पूछा भार्इ साहब यहां रिक्शा कहां मिलेगा।
जवाब मिला- कहीं नहीं।
मैनेे कहा- बाराबंकी जाना है।
जबाब मिला- ढार्इ घण्टे इन्तजार करो पैसेन्जर ट्रेन आएगीचले जाना।
मैं फिर जोड़-घटाने में उलझ गयी छ: बज रहे है ढ़ार्इ घण्टे मतलब साढ़े आठ, फिर आधा घण्टा बाराबंकी पहुंचने में।
मैने फिर पूछा- भार्इ साहब टैम्पो तो चलती है।
जवाब मिला- हां यहां से चार-पांच किलोमीटर पैदल जाइए तो चौराहे पर टैम्पो मिल जाएगी।
उन दोनो अंकलों के साथ हम तीनाें उस सुनसान रास्ते पर निकल पड़े। दोनों तरफ जंगली झाड़ उसके आगे खेत बीच में संकरी सी पगडण्डी खैर करीब पौन घण्टा पैदल चलने के बाद हम चौराहे पर पहुंचे तो टैम्पो निकल गयी। दूसरे टैम्पो वाले से पूछा कि तुम कब चलोंगे तो बोला- सवारी मिलेगीं तो जाएगें वरना नहीं जाएगे। फिर दोनो में से एक अंकल जिनके पास सामान ज्यादा था, वे जम्मू से आ रहे थे और आर्मी पर्सन थे, ने टैम्पो रिजर्व की तब जाकर हम घर पहुंचे।

छेड़छाड़ की मामूली सी दिखने वाली घटनाएं कभी-कभी  भयानक रूप ले लेती है। ऐसा ही एक वाकया महिला कालेज में पढ़ने वाली एक लड़की के साथ हुआ। ट्रेन से आते-जाते कर्इ बार हमारी मुलाकात हुर्इ थी जिससे हमारे बीच अच्छी जान-पहचान भी हो गयी थी। वह देखने में भी बहुत सुन्दर थी। हुआ यूँ कि एक लड़के की छीेटाकशी के जवाब में उसने दस लडके को जमकर लताड़ा। भीड़ के दूसरे सदस्यों ने भी उसका साथ दिया और उस लड़के को एक दो झापड़ भी रसीद कर दिया। तब से वह लड़का हर समय उसे सबक सिखाने की फिराक में रहता। बात इतनी बढ़ गयी कि लड़की कुछ दिनाें तक बस से अप-डाउन करने लगी। इत्तेफाक से उस दिन बसों की हड़ताल थी और उसके प्रेक्टिकल इमितहान थे। उसने एक बार फिर ट्रेन का सहारा लिया। बदकिस्मती से लौटते वक्त मेमू ट्रेन के जिस डिब्बे में वह चढ़ी उसमे भीड़ कम थी। कुछ देर बाद चार लड़के हाथों में सुलगी सिगरेट लिए उसके सामने वाली सीट पर बैठ गये। किसी अनहोनी के डर से भयभीत वह चुपचाप बैठी भगवान को याद करने लगी और मन ही मन निर्णय लिया कि अगले स्टेशन पर डिब्बा बदल लेगी। मल्हौर स्टेशन आते-आते उसने पाया कि उन लडकों के अलावा डिब्बे के लगभग सभी पैसेंजर उतर चूके है। वह भी उतरने को हुर्इ तो देखा कि दो लड़के गेट रोक कर खड़े है। दूसरे गेट पर उसी लड़के को जिसने उसे लताडा था, को देखकर वह और भी घबरा गयी । उसका कलेजा मुंह को आ गया। वह तीसरे डिब्बे की तरफ बढी ही थी कि ट्रेन चल दी। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह वहीं खड़ी रही तभी वह लडका उसके पास आया और बोला बैठ जाइएं। वह कुछ नही बोली बस चुपचाप खड़ी रही, वह लड़का उसका हाथ पकड़ कर बोला-बैठो, उसने हाथ छुड़ाते हुए लड़के को डांटने की कोशिश की- देखो ज्यादा बदतमीजी मत करो वरना....... उसका गला भर्रा गया। इतने में वह लड़का उसकी बात काटते हुए गुस्से में बोेला - वरना, वरना क्या कर लोगी, बोलो (बीच-बीच में उसे छुने की कोशिश भी करता) क्या कर लोगी कौन आएगा बचाने हम अपने पर आ गये ना तो किसी को मुंह दिखाने के लायक भी ना बचोगी।
तभी उसने देखा कि बाकी लड़के उसी की तरफ आ रहे है। वह दौड़ कर गेट पर पहुंच गयी। उसने तय कर लिया था कि जरूरत पड़ी तो वह ट्रेन से कूद जाएगी। वह रोते हुए बोली- अगर तुम लोग आगे बढ़े तो कूद जाउंगी। लड़कों को जैसे मजा आ रहा था। वे उसकी तरफ बढ़े तो वह फिर बोली- मैं कूद जाऊगी। तब तक जग्गौर स्टेशन आ गया और वह तेजी से उतर कर दूसरे डिब्बे में आ गयी और फफक-फफक कर रोती रही। मैं भी उसी डिब्बे में बैठा था। मैं उसे छोड़ने उसके घर गया तब जाकर सारी बातें मालूम चली। इस घटना का असर इतना बुरा हुआ कि वह एक हफ्ते तक घर से बाहर नहीं निकली यहां तक कि प्रेक्टिकल इम्तिहान तक छोड़ दिया। ट्रेन से अप-डाउन करने वाले लोग बताते थे कि दो साल पहले एक लड़की ने ऐसी ही किसी वजह से ट्रेन से कूदकर जान दे दी थी | वाकर्इ ऐसी घटनाए अप-डाउन करने वाली लड़कियों की हिम्ममत चूर-चूर कर देती है।


प्रस्तुति-  जय सिंह

       जानकीपुरम, लखनऊ 


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