गुरुवार, 26 अक्तूबर 2017

औरत बँधी है परिवार की धुरी से







औरत बँधी है
तीज से, चौथ से,
छठ से, अहोई से,
निर्जल व्रत से,
अर्घ्य से, पारण से,
मन्नत से, मौलवी से,
टोटके से, संकल्प से
झाड़ -फुक के विकल्प से |

औरत बँधी है
दो गरम फुलकों से,
घी से, तरह-तरह के हलुए से,
मलाई वाले दूध से,
इस्त्री किये हुए कपड़ों से,
जिल्द लगी किताबों से,
सलीके से दौड़ती गृहस्थी से,
घड़ी के काँटों से बँधी सहूलियतों से |

औरत बँधी है
कुछ खोने के भय से,
अपना और अपनों को
संजो-सहेज कर रखने की आदत से,
खुद को भूल जाने की खुशी से,
थकान से, जिस्मानी हरारत से |

औरत बँधी है
संतानों की सुरक्षा और संस्कार से, 
पति की छाँव में भरे सुकून से,
परिवार की धुरी से,
अपेक्षाओं से अपेक्षाओं से |


औरत बंधी है
अंतर्मन से,
अपने दिल से,
जिम्मेदारी से,  
और उस पर कमाल ये कि 
वो केवल और केवल           
हाउस-वाइफ कह कर
रख दी जाती है, एक कोने में |


जय सिंह 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अपनी अमूल्य राय या टिपण्णी यहाँ दे