बुधवार, 28 मार्च 2012

अपने ही ले डूबे सरकार को



जय सिंह

उत्तर प्रदेश विधान सभा में समाजवादी पार्टी को मिली ऐतिहासिक सफलता से यह स्पष्ट कर दिया है कि बहुतन समाज पार्टी द्वारा दलितों के अधिकारों एवं समस्याओं को अनदेखी करना ही इतना बड़ा परिवर्तन का कारण रहा। इसके साथ साथ केवल चार-पांच अधिकारियों एवं मंत्रियों के ऊपर भरोसा करना भी पार्टी मुखिया सुश्री मायावती के लिए घातक साबित हुआ। ठीक पांच साल पहले जिस बहुजन पार्टी बसपा को दलित समाज अपना हितैसी समझ कर यूपी में बहुमत सरकार बनाने का मौका 2007 में दिया। उसी समाज के कैडर के कार्यकताओ और अन्य से दूरियां बढने के कारण तथा मनुवादी लोगों के बीच घिरकर दलितों के गुस्से का शिकार होना पडा। मनुवादीयों और अन्य समाज के लोगों द्वारा घोखा दिये जाने के कारण ही बसपा की सरकार को सत्ता से दूर कर दिया।
बसपा मुखिया सुश्री मायावती ने जिस तेजी से 2007 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को नर्इ उंचार्इयों तक पहुंचा कर सफलता का नया इतिहास रचा था आज वही मायावती के साथ सभी जोनल कोआर्डिनेटर,जिलाध्यक्ष,एवं अन्य भ्रष्ट बसपा नेता जो कभी कैडर के लिए ठीक से काम ही नही किया वे बसपा के दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है। बसपा के इस असफलता के लिए सबसे अधिक मायावती के सिपहसालार, जोनल को-आर्डिनेटर एवं मंत्री जिम्मेदार है। जो पैसे की भुख ने पार्टी की दशा को ही बिगाड़ कर रख दिये और दलित समाज को पुन: हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिये। 2007 मे 206 सीटें जीतकर बहुमत की सरकार बनाकर मायावती ने प्रदेश की जनता को भयमुक्त समाज देने और कानून व्यवस्था में सुधार का वादा किया था लेकिन उनका यह वादा एक साल के भीतर ही चूर-चूर हो गया जब बसपा सरकार के मंत्री आनन्द सेन ने अपनी प्रेमिका की हत्या के मामले में जेल जाना पडा तथा उसी सरकार में मंत्री शेखर तिवारी ने एक इंजिनियर को पीट-पीट कर हत्या कर दी थी।
ऐसे कारनामों की सूची लंबी होती गयी। मंत्री पुलिस थानों में उत्पात करते गये, विधायक बालात्कार के दोषी बनते गये और पार्टी के नेता जो संगठन के उच्च पद पर थे वे भ्रष्टाचार में लिप्त होते गये। और मायावती के लिए मुशिकलें बढती गयी। जिसके कारण जनता में आक्रोश भरता गया। क्योंकि सरकार में पार्टी के नेता जनता का कोर्इ काम बिना पैसे लिए करवाते ही नही थे चाहे वह जिले स्तर का कार्य हो या प्रदेश स्तर का, और खास कर के दलित समाज का व्यकित ही अधिक लूटा गया।

अपने पिछले तीन मुख्यमंत्रीत्व काल में मायावती ने अपनी पहचान एक ऐसे कुशल प्रशासक के रूप में बनायी थी जिसके सामने बडे़-बड़े अधिकारी भी कांपते थे। सभी विपक्षी नेता भी तारीफे करते थे। लेकिन इस कार्यकाल में उनका यह रूप देखने को नही मिला। पूरे पांच साल में कोर्इ प्रभावी दौरा या समीक्षा ही नही की जिससे अधिकारियों मे डर पैदा हो और वे जनता का काम तत्काल प्रभाव से करे। इस बार वह  पुरी तरह से मुठठी भर अधिकारियों एवं मंत्रियों पर निर्भर रही। यही नही उन्होने बस वही देखा जो इन अधिकारिओ  और मंत्रियों ने उन्हे दिखाना चाहा। इससे पूरा अधिकारी संवर्ग एवं दलित समाज भी बेचैन हो उठा। पूरा प्रशासन तंत्र मुख्यमंत्री के पांच अधिकारियों और चार मंत्रियों के सामने नतमस्तक हो गया। यहां तक की दलित समाज अपनी पीडा दलित उच्च अधिकारियों से कहता था उस पर भी कोर्इ कार्यवार्इ नही हुर्इ और पुरी तरह से अनदेखी कर दिया जाता रहा। उत्तर प्रदेश का प्रशासन कब कुशासन में बदल गया मुख्यमंत्री को भी शायद इसका पता भी नही चला। अब उनकी पार्टी के नेता स्वीकार कर रहे है कि मुख्यमंत्री जिस तरह से जनता और अपने समाज से कट गयी थी । कुछ अधिकारियों और दलाल टार्इप के नेताओं पर निर्भर हो गयी थी उससे पार्टी को चुनाव मे ज्यादा नुकसान उठाना पड़़ा।
यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली मायावती ने वर्ष 2012 का किला फतह करने के लिए यू तो एक साल पहले ही अपनी व्यूह रचना तैयार की थी। इसके लिए उन्होने एक साल पहले से ही विधान सभा क्षेत्र प्रभारी के तौर पर प्रत्याशियों को तय कर दिया। मगर चुनाव आते-आते ऐसे प्रत्याशियों  में भारी बदलाव हुआ इस बदलाव में बसपा के जोनल को-आर्डिनेटरों ने अहम भूमिका निभायी और अपने मनमाफिक रकम लेकर सीट तय की। कर्इ क्षेत्रों में तो वे अपने बेटे,बेटियों,पत्नी व चहेतों को टिकट दिलाने के लिए जीतने वाले प्रत्याशियों तक को दर किनार करवा दिया। यहा तक की पार्टी में वर्तमान विधायकों को भी टिकट नही दिया गया जो जितने के सिथति में थे। नतीजा चुनाव में बसपा के पूर्व में घोषित वही प्रत्याशी नये चेहरों के सामने चुनौती बनकर खड़े हो गये।
मुख्यमंत्री के साथ पार्टी की इस दुर्दशा के लिए सबसे ज्यादा उनके पार्टी के को-आर्डिनेटर ही जिम्मेदार है। ऐसा माना जाता है कि पार्टी के कोआर्डिनेटर की भूमिका पार्टी अध्यक्ष के कान,आंख की तरह होती है। इनकी पहुंच सीधे मुख्यमंत्री तक होती है। यही को-आर्डिनेटर पार्टी मुखिया को अधिकारियों की कार्य प्रणाली,लोगों की अपेक्षाओं और पार्टी नेताओं की छवि के बारे में सही जानकारी देते है। लेकिन 2007 के बाद जिस तरह से मिश्रा और पाण्डेय बन्धुओं ने मुख्यमंत्री के इर्द-गिर्द अपना घेरा मजबूत किया मायावती ने अपने इन को-आर्डिनेटरों से भी दूरी बढ़ गर्इ। को-आर्डिनेटर भी पैसे कमाने में पुरी तरह से संलिप्त हो गये। वे पैसे लेकर लोगों को टिकट दिलाने लगे। इससे पार्टी के कैडर के कार्यकर्ताओं का सम्मान कम होने लगा तथा उनकी बात या काम को कोर्इ सुनने वाला नही था। इससे पार्टी में वाफादारों की संख्या घटने लगी और उनकी जगह की भरपार्इ धन-बल और बाहुबल के लोगों ने की जो कभी बसपार्इ थे ही नही। यही कारण था कि बसपा में अपराधियों की पैठ बन गयी। जैसे-जैसे अपराधी,बाहुबली और धनपशु पार्टी में प्रवेश करते गये वैसे-वैसे मायावती अपने पार्टी कैडर से दूर होती चली गयी।
मायावती ने भले ही बहुजन समाज पार्टी के संतो-गुरूओं की स्मृति में मुर्तियां,स्मारक और पार्को का निर्माण कराया हो लेकिन पानी के लिए प्यासी जनता जिसे मायावती ने पानी पिलायी, रोजगार के लिए भटकते नौजवानों को नौकरी की व्यवस्था की, बिजली की रोशनी में रहने वाली जनता ने भी पसन्द नही किया। इसके जिम्मेदार भी पार्टी के सभी बडे-छोटे नेता है जो जनहित में सरकार द्वारा किये गये कार्यो और विकास को ग्रामीण जनता को बताने मे कभी अपनी जिम्मेदारी ही नही समझी और न ही कभी रूचि दिखायी। जिसका फायदा विपक्षी पार्टी को मिल गया।
मायावती ने भले ही सर्वजन हिताय और सर्वजन सुुखाय के नारे ने अपना बहुजन से सर्वजन का सफर आरम्भ किया लेकिन उनकी पार्टी की विचारधाना में यह बदलाव दलितों को कत्तर्इ रास नही आया। पार्टी कैडर को पसंद नही आया। इसका परिणाम कैडर के लोग भी उनसे दूर जाने लगे। प्रदेश सरकार का कार्यकाल समाप्त होते-होते जो ब्राम्हण पिछलग्गु बना था वह भी दूसरे दलों की तरफ खिसक गया। जो इस चुनाव में मायावती के लिए सबसे बड़ा हादसा साबित हुआ।
इतना सब कुछ होते हुए भी मायावती अपने भ्रष्ट जोनल को-आर्डिनेटरों एवं नेताओं से लगाव कम नही हो पा रहा है जो पार्टी को हराने के जिम्मेदार है। अभी भी इन्ही को पार्टी की जिम्मेदारियां दे दी गयी है कि पार्टी को फिर से मजबुत करे। मायावती को कैडर के कार्यकर्ता अभी भी नजर नही आ रहे है जो पार्टी की जान है। पार्टी के इस हार से बसपा के युवा नेताओं, कार्यकर्ताओ में भी आक्रोश है। वह पार्टी मे अपने क्रानितकारी मिजाज के साथ नया जान फूंकना चाहता है परन्तु नये युवा नेताओं को कोर्इ मौका मिलता नजर नही आ रहा है। जब तक बसपा में नये युवा पीढी के चेहरे को शामिल नही किया जाता और उनको जिम्मेदारी नही दी जाती तब तक पार्टी में क्रानितकारी परिर्वतन नही आ सकता। बसपा को पुन: सत्ता मे आने के लिए र्इमानदारी से पार्टी नेताओ को जनता के बीच मे रहकर कार्य करना होगा और जनता के सुख दुख में भागीदार होना पडेगा। मायावती को पार्टी में बडे पैमाने पर स्क्रीनिंग करनी होगी तथा हर वर्ग को जिम्मेदारी देकर निर्वहन करने का निर्देश देना होगा।

जय सिंह
डा0 भीमराव अम्बेडकर पी0जी0 छात्रावास
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