बुधवार, 17 जुलाई 2013

सामाजिक वर्ण व्यवस्था की प्राण हैं- आर्थिक वर्ण व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेकना


        

बड़े-बड़े सामाजिक आंदोलनों का पोस्टमार्टम करने से पता चलता है कि वे भटक इसलिए गये, कि उनके नेतृत्व में इमानदारी थी तो योग्यता नहीं और अगर योग्यता थी तो र्इमानदारी नहीं। भावी समाज का नेतृत्व किसी के हाथ में देते समय एक सावधनी तो यह बरतनी है।
दूसरी सावधनी यह बरतनी है, कि भावी समाज एक ऐसा समाज हो, जिसमें आदमी की योग्यता की एवं उसके कर्म की कद्र होती हो, न कि जन्म की। जन्म के आधार पर भारतीय संस्कृति की वर्ण व्यवस्था बनी है। इसका सैद्धांतिक महिमामण्डल चाहे जितना कर लिया जाये, इसका व्यवहारिक प्रचलन तो भावी समाज के रचायिताओं को कदापि स्वीकार नहीं हो सकता। जन्म के आधर पर कुछ लोगोें को सम्मान और कुछ लोगों को अपमान परोसने वाली इस सामाजिक बुरार्इ ने आरक्षण रूपी जातिवादी बुरार्इ को जन्म दिया। सामाजिक न्याय कायम करने के लिए अनेक प्रयोग चल रहे हैं, लेकिन अब तक के जितने भी प्रयोग सामने आये, उन सबको जब सच्चार्इ में तपाया गया तो इन प्रयोगों की खाक तक नहीं बची। यह देखा गया है कि आरक्षण का खाका अपमान के लिए आरक्षित समुदाय में एक अल्पसंख्यक महाजन वर्ग तो पैदा कर सकता है लेकिन यह दलित समाज के घर-घर में रोशनी का दीप नहीं जला सकता। 

साल भर में जितनी जगहें आरक्षण से भरी जाती है उसकी सौ गुना जनसंख्या हर साल दलित समाज में पैदा हो जाती है। अब तो लगभग सारे दलित शुभचिंतक मानने लगे हैं कि दलित समुदाय में पैदा हो रहा अल्पसंख्यक नवध्नाडय वर्ग दलितों के पूरे समुदाय का भला चाहता ही नहीं। क्योंकि यह नवधनाडय वर्ग यह तो चाहता है कि जन्म के आधर पर बाप का तिरस्कृत व अपमानित जीवन बेटे को उपहार में न दिया जाए। अमीर दलित यह चाहता है कि सामाजिक विरासत और सामाजिक उत्तराधिकार बेटे को देने वाली परम्परा खत्म हो। दलित महाजन सामाजिक दासतां की बेडि़यों को एक क्षण बरदाश्त करने को तैयार नहीें है। वह नहीं चाहता कि बाप को अपमान का आरक्षण झेलना पड़ा तो बेटे को भी झेलना पड़े। वह चाहता है कि आदमी की कीमत उसके कर्मों से हो, न कि जन्म से। वह चाहता है कि यदि अपमानित व्यकित का बेटा योग्य हो, तो उसे वहीं सम्मान दिया जाये जो किसी सम्मानित व्यकित के योग्य बेटे को मिलता है। दलितों के नवध्नाडय लोगों में इस बात को गहरी निष है कि सामाजिक अवसरों की समता सभी के लिए सुलभ हो। मान-आपमान का संबंध् उसके कर्मों से हो। योग्यता के बल पर सम्मान पाने की सामाजिक आजादी सभी को मिले।
'' आर्थिक असामनता जातिगत असमानता से भी गंभीर मुíा है यदि 1950 में संविधन लागू होते समय नेहरु इस सिथति को भांप लिये होते कि भारत में गरीबी का ताना बाना जाति और वर्ग से बुना गया है तो जाति के लांछन के बगैर ही सामाजिक और आर्थिक दृषिट से एक वास्तविक कल्याणकारी राज्य की आधारशिला रख चुके होते तत्कालीन विधि मंत्री डा. बी. आर. अम्बेडकर जिन्हें दलितों का मसीहा माना जाता है। आरक्षण के पक्ष में नही थे, क्योंकि वह इस प्रकार के आरक्षण को बैसाखी मानते थे। बहुत मान-मनुहार के बाद उन्होने कोटा प्रणाली को संविधान में शामिल किया इस प्रावधन के साथ कि सभी प्रकार के आरक्षण एक दशक के भीतर समाप्त हो जाएंगे। किन्तु भारत में  चुनावी राजनीति ने ऐसा रुप धारण कर लिया कि तत्कालीन सत्तारुढ़ दल कांग्रेस को भी जीत के लिए आरक्षण का समर्थन करना जरुरी हो गया। हर दसवें साल सर्वसम्मति से आरक्षण और दस  वर्षों के लिए बढ़ा दिया जाता है । सभी दलों  ने विभिन्न जातियों में अपने-अपने नेता उभार लिए हैं। ये सभी आरक्षण को गाय के समान पावन मानते हैं। चार दशक से भी अधिक समय बीत गया किन्तु अभी तक आरक्षण को किसी ने चुनौती नहीं दी। ये रियायतें अगले 50 वर्षों में भी समाप्त नहीं होगीं। कोटा कायम रखने के लिए निहित स्वार्थ विकसित हो गए हैं।

यदि  वास्तव में दलित महाजनों की निष्ठा वर्णव्यवस्था को मिटाने में होती, तो उनकी निष्ठा कर्म प्रधान समाज की रचना करने में भी होती। तो वे केवल यह नही कहते कि सामाजिक विरासत बेटे को देने वाली परम्परा खत्म हो, वे यह भी कहते, कि आर्थिक विरासत भी बेटे को देने वाली परम्परा खत्म हो। यदि दलित महाजन वास्तव में पूरे दलित समुदाय के शुभचिंतक होते, तो वे केवल यह नहीं कहते कि सामाजिक उत्तराधिकार की परम्परा रोकी जाए, से यह भी कहते कि आर्थिक उत्तराधिकार का कानून खत्म किया जाए। यदि दलित महाजन यह सोचते कि हर एक दलित के घर में न्याय और सम्मान का दीपक जले, तो वे केवल सामाजिक दासता की बेडि़याें पर ही कुल्हाड़ी नहीं चलाते, अपितु आर्थिक दासता की बेडि़यों पर भी कुल्हाड़ी चलाते। तब वे केवल यह नहीं चाहते कि बाप को भले ही आपमान के लिए आरक्षित रहना पड़ा, बेटे को मुक्त किया जाए। वह यह भी चाहता कि बाप भले ही गरीबी के दलदल में छटपटाता रहे तो , बेटे को गरीबी से मुक्त किया जाए।

अगर दलित महाजनो की रुचि दलित उद्धार में होती, तो वह केवल यही नारा नहीं लगाता, कि मान-अपमान कर्म से हो, जन्म से नहीं। वह यह नारा भी लगाता कि अमीरी-गरीबी कर्म से हो, जन्म से नहीं। वह केवल यह तर्क नहीं देता कि सदियों से अपमानित व्यकित का बेटा योग्य हो, तो उसे अपमान के अभिशाप से मुक्त करके वैसा ही सम्मान दिया जाए, जैसा कि किसी सम्मानित बाप के योग्य बेटे को दिया जाता है। वह यह तर्क भी देता कि गरीब बाप का बेटा यदि योग्य हो, तो उसे गरीबी के अभिशाप से मुक्त करके उसे वैसी हो सम्पन्नता से नवाजा जाए जैसी सम्पन्नता किसी अमीर बाप के बेटे के लिए कानूनन आरक्षित होती है। यदि दलित महाजनों में सामाजिक न्याय कायम करने को कोर्इ रूचि होती तो वे केवल सामाजिक अवसरों की समता मांगकर चुप्पी नहीं साध लेते। अपितु वे आर्थिक अवसरों की समता की मांग भी करते। तब वे केवल सामाजिक आजादी में मुकित का मार्ग नही देखते। अपितु आर्थिक आजादी की लड़ार्इ भी लड़ते। यह सब प्रमाण हैं- आरक्षण व्यवस्था के खोखलेपन का, वर्णव्यवस्था के खिलाफ झूठी लड़ार्इ का और सामाजिक न्याय के आन्दोलन के भटक जाने का।

वर्ण व्यवस्था के संकीर्ण रचनाकारों ने कुछ लोगों को जन्म से सम्मान का आरक्षण और कुछ लोगों को अपमान का आरक्षण दिया। इस व्यवस्था को सैद्धांतिक आधार देने के लिए पुर्नजन्म की कल्पना की गर्इ। एक साजिश को समाज में चलाने के लिए दूसरे झूठ का सहारा लिया। इसी पुर्नजन्म के सिद्धांत को लोगों के दिलो-दिमाग में घोट-घोटकर पिलाया गया और अभी तक पिलाया जा रहा है। यह बताया गया कि तुम्हारे पिछले जन्म के कर्म वर्णव्यवस्था के हिसाब से खराब थे, इसलिए तुम अपमानित जगत के परिवार में पैदा हुए हो। अब जीवन भर प्रायशिचत करो। लोगों के जूते अपने सिर पर रखकर ढ़ोओ। लेकिन जिसके जूते ढ़ोओ, उसको स्पर्श मत करना। स्पर्श करोगे तो प्रायशिचत में विघ्न पड़ जाएगा। इस जन्म में भी अधर्म हो गया, तो अगला जन्म फिर इसी जाति में पाओगे। इसलिए बड़ी जातियों के लोगों के दास बनकर जिन्दगी गुजार दोगे तो अगले जन्म में बड़ी जाति में पैदा होने का मौका मिलेगा।
पूर्वजन्म की इस मनगढ़न्त आनुवांशिक भौतिकी ने शूद्रों को अत्याचार सहने लायक बनाया और वे जीवन को ऐसे गुजारने लगे जैसे अदालत से दण्ड पाने के बाद कोर्इ मुजरिम जेल में अपने जीवन के सारे स्वाभिमान को खूंटी पर टांग कर जीने लगता है। कलयुगी अदालत तो 20 साल की कैद को ही आजीवन कैद मानकर संतुष्ट हो जाती है लेकिन कथित सतयुगी अदालत तो दुधमुंहें बच्चे को बचपन से ही कारागार में भेजती रही है।

जरा गौर कीजिए कि जब एक गरीब मजदूर, गरीब रिक्शा वाले, गरीब चपरासी, गरीब अèयापक, गरीब किसान, गरीब घरेलू नौकर के दुधमुंहे बच्चे को बाप का काम ही करने के लिए बाप से ही बाèय करवाया जाता है तो क्या यह वर्णव्यवस्था के अत्याचार से अलग कोर्इ कहानी है? उस दुधमुंहे बच्चे की ओर से अगर तथाकथित इस सतयुगी अदालत में कोर्इ जनहित याचिका दायर करके बच्चे का वकील अदालत से प्रश्न करे कि क्या ठेले वाले का बेटा ठेला चलाने के लायक ही था? क्या रिक्शा वाले का बेटा रिक्शा चलाने के अलावा कोर्इ और काम नहीं कर सकता था? क्या किसान का बेटा सम्पन्नता के लिए आरक्षित अधिकारी नहीं बन सकता था? क्या झाड़ू-पोछा लगाने वाले घरेलू नौकर का बच्चा झाड़ू-पोछा लगाने के लिए ही पैदा हुआ है? क्यों गरीबों के बच्चों को जन्म के आधार पर दण्ड दिया जा रहा है? क्यों जन्म लेते ही गरीबी और अपमान का प्रमाण-पत्र उनके गले में लटका दिया जाता है? आखिर क्यों?
इन सवालों को सुनने के बाद परम्परावादी कथित सतयुगी अदालत अगर 24 कैरेट  शुद्व होगी, तब तो वह सवाल करने वाले को ही फांसी की सजा सुना देगी। कहेगी-तुमने अधर्म किया है, अगले जन्म में तुम शुद्र परिवार में पैदा होेगें और अगर ऊंची जाति में पैदा हो भी गये, तो किसी गरीब परिवार में पैदा होंगे। तुम्हारा जीवन तुरन्त छीना जाता है। अगर अदालत 24 कैरेट से कम पवित्रा हुर्इ तो वकील को फांसी न देकर केवल यह कहकर चुप हो जायेगी कि पिछले जन्म में कर्म खराब थे, इसलिए गरीब के घर में उसका जन्म हुआ है। 

वर्णव्यवस्था ने सम्मान और सम्पन्नता दो चीजें एक तरह के लोगों के लिए आरक्षित है, अपमान एवं विपन्नता दूसरे तरह के लोगों के लिए है। वर्ण व्यवस्था के खात्मे के जो भी आन्दोलन इतिहास में अब तक चलाये गये हैं, उनमें सम्मान-अपमान के आरक्षण का मामला खूब चर्चा में आया। लेकिन अमीरी-गरीबी का आरक्षण भी पुर्नजन्म तथा वर्णव्यवस्था की उपज है, यह बात छिपाकर रखी गर्इ। सामाजिक वर्णव्यवस्था खत्म होनी चाहिए, इसके लिए बड़े आन्दोलन हुए हैं। लेकिन आर्थिक वर्णव्यवस्था भी खत्म होनी चाहिए, इसका जिक्र भी नहीं किया गया, क्यों?

अगर ऊंची जाति के लोग यही सवाल उठा दें, कि यदि दलित आन्दोलन, दलित चिन्तन, दलित साहित्य के रचनाकार अमीरी-गरीबी के आरक्षण को अमीर-गरीब परिवारों से जोड़कर बनाये रखने में श्रृद्धा रखते हैं, तो फिर से सवर्णोें के मान-सम्मान का आरक्षण पूर्ववत बनाये रखने में बुरार्इ क्या है? अगर असवर्ण लोगों को केवल एक अत्याचार करना पसन्द है, तो सवर्ण लोगों को दो अत्याचार करना पसंद है! अगर गरीबों पर अत्याचार करना दलित महाजनों को पसंद है तो दलितों पर अत्याचार करना सवर्णों को पसंद है! अगर गरीब के बेटे को गरीब देखना, दलित महाजनों को अच्छा लगता है तो अछूत के बेटे को अछूत देखना सवणोर्ं को अच्छा लगता है! गरीबों को गाली देकर बात करना यदि दलित महाजनों के लिए आèयातिमक आस्था का विषय है, तो दलित महाजनों को गाली देकर बात करना सवर्णों के लिए आस्था का विषय है! यदि दलित महाजनों की आस्था में किसी को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है, तो सवर्णों की आस्था में हस्तक्षेप का अधिकार दलितों को कैसे मिल गया? जो आर्थिक अन्याय की वर्ण व्यवस्था बनाकर रखना चाहता है, वह किस मुंह से सामाजिक न्याय की वर्णव्यवस्था को उखाड़ने की मांग करेगा? यह एक गम्भीर एवं सोचनीय प्रश्न है इस पर गम्भीरता से विचार करना होगा और समाजिक वर्ण व्यवस्था की प्राण, आर्थिक वर्ण व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेकना होगा। 

जय सिंह 

2 टिप्‍पणियां:

  1. यह तथ्य है कि महज राजनीतिक आरक्षण की सीमा दस साल के लिए थी न कि नौकरियों और शिक्षा से सम्बन्धित आरक्षण की! मजेदार बात तो यह है कि राजनीतिक आरक्षण को बढ़ाने की मांग दलितों की तरफ से कभी नहीं की गई. भारतीय संविधान के अनुसार आरक्षण की व्यवस्था का आधार सामाजिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक पिछड़ापन है.

    दलित महाजन है कौन ? कौनसा बैंक चलाते हैं ? किससे सूद बटोरते हैं? देश की जमीन, जायदाद, संसाधनों, अवसरों में इनकी भागीदारी क्या है? मुख्यधारा के मीडिया, फिल्मों, उद्योग-धंधों, उच्च शिक्षा, कारोबार की दुनिया में इनकी क्या हैसियत है? रिजर्वेशन से मिली छोटी-मोटी नौकरी पीट रहे दलित मध्यवर्ग को महाजन कहना सही नहीं है. पिछले दिनों सुनने में आया था कि केन्द्र सरकार में सचिव के पद पर एक भी दलित नहीं है. यह तो तब है जबकि नौकरियों में रिजर्वेशन की व्यवस्था है. अधिकाँश दलित व्यक्तियों को जमीन-जायदाद विरासत में नहीं मिलती. ओबीसी जातियों में कुछ के पास जमीन-जायदाद है, लेकिन ब्राह्मणवाद की वजह से वे सांकृतिक व शैक्षिक रूप से पिछड़ी अवस्था में हैं. वे भी तरक्की के अवसरों से मरहूम रहे हैं.

    हमें यह याद रखना चाहिए की जाति का भी अर्थशास्त्र होता है. वर्ण व्यवस्था में शूद्र को सम्पत्ति रखने का अधिकार नहीं था. अतिशूद्र तो अछूत के तौर पर बहिष्कृत और पशुवत जीवन बिता रहे थे. आजादी के बाद पिछड़ी और दलित जातियों में थोड़ी-बहुत आर्थिक समझदारी आई है. लेकिन अभी भी उनकी स्थिति सवर्णों के मुकाबले कमजोर ही है. आर्थिक डायवर्सिटी के बिना समाज का विकास सम्भव नहीं है. आजकल फैशन हो गया है कि गरीब दलित की सभी बात करते हैं. सवर्ण भी गरीब दलित के लिए आंसू बहा रहे हैं. सवर्ण समुदाय जनरल कैटेगरी(अघोषित रूप से सवर्णों के लिए रिजर्व) में क्रीमी लेयर लगाने की बात क्यों नहीं कहता. जनरल कोटे का सारा माल तो अमीर सवर्ण उड़ा रहे हैं.

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